आस
मुझे स्त्री कहो या कविता
मुझे गढ़ों या ना पढ़ों
मुझे भाव पढ़ना आता है।
खुबसूरती का ठप्पा वाह में
कभी प्रथम पृष्ठ अखबार में
किसी घर में,
किसी गुमनामी राह पर।
लेकिन मैं भी आदत से लाचार हूॅं
कभी झुक कर उठ जाती हूॅं
कभी टूट कर जुड़ जाती हूॅं
मुझे नदी की तरह है जीना
सीखा है उसी की धार से
इसी लक्ष्य के साथ
हर कदम आगे बढ़ती रहती हूॅं।
अंतर्आत्मा के महल में
उन्मुक्त गगन में
शशि,दिनकर की छांव में
खुद को सिंचते रहती हूॅं।
अंधेरापन के खड़कने से
अनायास ही कुछ चटकने से
हृदय के दरकने से
कर्णकटु स्वर से
सहम सी जाती हूॅं
न जाने क्यूं,
अपनी अस्मिता को बिन जताएं ही
एक कदम पीछे खिसक जाती हूॅं।
पैरों में पायल,
हाथों में चूड़ियाॅं
कानों में झुमकी और माथे पर बिंदियाॅं
पल्लू के साथ कभी छांव, कभी धुप दिखाती
दर्पण को चेहरे की भाषा समझाती
स्वप्निल नैनों को मटकाती
मुस्कुराते हुए मुखड़े को लेकर
दबे पांव चलकर
होंठों को सीलकर
सबकी हुजूम जुटाती
फिर भी न जाने क्यूॅं
बड़ी मासुमियत से
स्त्रियां,न जाने कब
अपनों से छली जाती है।
सुबह का चार,संध्या के चार में
कभी महसूस नहीं होती
बच्चों को भेजती स्कूल और
खुद भागती हुई आंफिस,स्त्रियाॅं
थकान को छोड़ किसी दूकान पर
पुनः जाती अपने आशियाने में
खुद को भूलाकर
कमरधनी की जगह पल्लू को बांधकर
सहेजती रहती अपने आशियाने के फूल को
कब तार-तार हो गई जीवन
कब बह गई पंक्तियां
फिर,न जाने कब स्त्रियां
परिस्थितियों के हिसाब में
अपने ही अंदाज से ठगी सी रह जाती है।
आज बदल गई है परिस्थितियां
इस पर हो रहे हैं विमर्श,
भाषणों में, गढ़ रहे हैं किताबों में
चल रही है जालसाजी दिमागों में
कभी भेड़-बकरियों की तरह नोंचे जातें हैं,
अनकही – अनसुनी बागों में।
सब कुछ बदल रहा है
लेकिन नही बदली है नारी की तक़दीर
क्या पता इस खेमें में आ जाए किसकी तस्वीर
लेकिन संस्कृतियों के मिठास में
रह गई हूॅं सिमटकर
मैं भी चाहती हूॅं जवाब दूॅं झटकाकर
लेकिन न जाने क्यूं
रिश्तों की डगमगाहट से
कॅंप – कॅंपा जाती हूॅं मैं
लड़खड़ा सी जाती है पंक्तियां
वास्तव में कब बदलेगी परिस्थितियाॅं
इसी आस में छलनी हो जाती हूॅं।
— निधी कुमारी