बिम्ब-प्रतिबिम्ब
मैं सिर्फ़ जीव शरीर
और कर्म को जानता हूँ।
‘आत्मा’ नामक
काल्पनिक बिंब के प्रति
इत्तेफ़ाक नहीं रखता !
मैं तो ‘साधना’ करता हूँ,
पर ‘देवी’ भाव दे,
तब ना !
एक तो शूद्र,
ऊपर से कुरूप हूँ!
मैं समोसे तक डालता हूँ,
पर वे घास तक
नहीं डालती !
हमेशा शांत रहें,
तभी जीवन में
खुद को मजबूत पाएंगे,
क्योंकि लोहा
ठंढा रहने पर मजबूत,
किन्तु गरम होने पर
उसे किसी भी आकार में
ढाल दिए जाते हैं !
भूल होना प्रकृति है,
मान लेना संस्कृति है !
….और सुधार लेना
प्रगति है !
यही तो चिंता
हो रही थी
कि आप पहुँचे हैं
या कहाँ हैं ?
मना किये
आज मत जाइए,
पर आप नहीं माने !