कविता

दम तोड़ती मानवता

आधुनिकता के चक्रव्यूह में
हम ऐसे फँसते जा रहे हैं,
मानवीय संवेदनाओं को
लगातार भूलते जा रहे हैं।
यह कैसी विडंबना है आज
मानव होकर भी मानवता से
बहुत दूर जा रहे हैं।
आज किसी के दर्द पर
हम मरहम कहाँ लगा रहे हैं,
मुँह फेरकर चुपचाप अनदेखा कर
आगे बढ़ जा रहे हैं।
सोचिए कि हम स्वयं ही
कैसा समाज बना रहे हैं,
गैरों की बात तो छोड़िए
अपनों की भी पीड़ा अब
महसूस कहाँ कर रहे हैं।
कैसा जमाना आ गया है
सबकुछ तो बिखर रहा है,
सड़कों पर बिखरा खून
बेबसों, लाचारों, कमजोरों की
पीड़ा का भान तक नहीं हो रहा है।
इंसान की इंसानियत
खुलेआम मर रही है,
आने वाले कल के
वीभत्स मंजर का
आज ही आभाष करा रही है,
क्योंकि हमारी मानवता
लगातार खो रही है
बड़ी बेहयाई से दम तोड़ रही है।

 

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921