कविता

जीवन भी खिलौना

जीवन भी एक खिलौना है
जाने किस किस के हाथों
खेला जाता है।
जीवन के चक्रव्यूह में उलझकर
जाने कैसे कैसे खेल का
गवाह बनता है,
खिलौने की ही तरह
जाने अंजाने कितने हाथों में
जाता बेबस बन
खेले जाने को मजबूर होता।
फिर खिलौने की ही तरह
उपेक्षित कोने में पड़ा रहता
कुछ ही दिनों में
अस्तित्व खोने जैसा भाव लिए
दुनिया से चला जाता,
जैसे खिलौना निष्प्रयोज्य हो
फेंक दिया जाता।

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921