गुनगुनाते हुए लोक गीत
जो उसने सीखे थे माँ से
रच-बस चुके थे सांसो में
हर त्योहारों के मीठे गीत
बेटियां अब कम हो जाने से
हो गये है त्यौहार भी फीके
गीत होने लगे आँगन से गुम
लोक गीतों और बेटियों को
जब सब मिलकर बचायेंगे
सूने आँगन फिर सज जायेंगे
सुर करेंगे हवाओ से दोस्ती
बोल कानो में मिश्री घोल जायेंगे।
— संजय वर्मा ‘दृष्टि’