गीत
जहर के कुछ पेड़ उग आये हैं मेरे चमन में, क्या करूँ मैं ?
रोज ही वो घोलतें हैं जहर साँसों में, पवन में, क्या करूँ मैं?
पक्षपाती न्याय हर दिन हृदय पर आघात करते ।
मन मरुस्थल हो गया है ,स्वप्न मेरे रोज मरते ।
यहाँ बलि बकरे को ही दी जायेगी यह रीति भी है,
देख लाचारी स्वयं की हर दिवस हम हैं सिहरते।
व्याध को दिखने लगें हैं फूल बूटे अब कफन में, क्या करूँ मैं?
जहर के कुछ ……………..
बीच शंकाओं के मैं भयभीत होकर जी रहा हूँ ।
पत्थरों के बीच में हूँ मोम ,आँसू पी रहा हूँ ।
पापियों के पाप का प्रत्यक्षदर्शी मौन हूँ मैं,
कौन सी है ये सजा ,किस पाप का पापी रहा हूँ ?
यज्ञ है ये राक्षसों का लग रहा डर आचमन में,क्या करूँ मैं ?
जहर के कुछ……………..
हर तरफ षडयंत्र की फैली पड़ी खूनी लताएं ।
नाग काले, फन पसारे ,टोह में कब काट खाएँ।
व्याध ने वन को नशें में आग दी ,व्याकुल है सारे-
भागते भयभीत यह मृग किस तरह खुद को बचायें?
व्याध कब बदलाव लायेगा स्वयं के आचरण में, क्या करूँ मैं?
जहर के कुछ ……………
© डॉ. दिवाकर दत्त त्रिपाठी 10/10/21