तम की घोर कारा
आज तम की घोर कारा बन गई,प्रारब्ध हाय!
‘दीप’ ने अपनी ‘शिखा’ का साथ छोड़ा बुझ गया।
दे गया मायूसियों के गहन चक्रों में फँसा मन,
निर्झरा आंखों से बहती टूटकर हर आस की,
तोड़ती दम आस्थाएं विष बुझे तीरों से घायल,
टूटती है सांस भी हर साध के विश्वास की।
चीखते समवेत स्वर में स्याल मृत्यु गीत के,
सज गया मरघट हृदय का और चिता है प्रेम की।
साथ का हर स्वप्न जलता मौन पीड़ा देखती।
घुल रहा है साथ सिंदूरी बदन हर चाह का,
तोड़ दी जाती है चूड़ी हाथ में श्रृंगार के।
श्वेत वस्त्रों में सजा कर मन के हर उल्लास को,
भेजती हूँ अब स्वयं मैं दूर अपनी छांह से।
काल -कलवित हो गई हर कामना,हर साधना।
अब है केवल शून्य और बस शून्य ही गढ़ता हृदय,
शून्य में ही शून्य जीवन प्रश्न का हल ढूंढता,
किंतु आती हाथ है प्रारब्ध की बाज़ीगरी,
श्वेत वसना चाह, सूनी मांग, व्याकुल नैन और,
पीर पथ पर डोलते अहसास का मंथर मरण
— दीपशिखा