गीतिका/ग़ज़ल

ग़ज़ल

सुबह ऐसे दुआ के गीत गाती है हिमाचल में।
कि जैसे माँ कोई लोरी सुनाती है हिमाचल में।
बड़े भाई के घर को रास्ता जाता हो, एैसे ही,
हमारे गांव की पगडंडी जाती है हिमाचल में।
बर्फ फिर चूमती है पर्वतों के जिस्म की गर्मी,
हवा जब सर्द मौसम को बुलाती है हिमाचल में।
फसल के जिस्म पर हरियालियों की दास्तां लिखती,
नदी जब भी धरा पर गुनगुनाती है हिमाचल में।
तरक्की के सुमन खिल कर है, खोले पंखडियों को जब,
कोई खुशबू हवा के साथ आती है हिमाचल में।
मुहब्बत रौशनी के जश्न घर घर में मनाती है,
दीए सद्भावना के जब जगाती है हिमाचल में।
यहां के देव, देवी, देवताओं की तपस्या ही,
धर्म की आस्था-शक्ति बढ़ाती है हिमाचल में।
यहां छोटा बड़ा सब प्यार से रहते हैं मिलजुल कर,
नदी दरियाओं का संगम बनाती है हिमाचल में।
त्योहारों की मर्यादा पर्व-मेलों की परिपाटी,
प्रभु के साथ लोगों को मिलाती है हिमाचल में।
कोई कविता लिखूं भारत के चरणों में झुका कर सर,
हवा बालम को दोबारा बुलाती है हिमाचल में।

— बलविंदर ’बालम‘

बलविन्दर ‘बालम’

ओंकार नगर, गुरदासपुर (पंजाब) मो. 98156 25409