न हूँ मैं डरी ,सहमी ,दबी सी
न बोल्ड ,तेज़ ,तरार
न हूँ मैं चार दिवारी में सिमटी
न पार्टीज़ की शान
न हूँ मैं पलू ओढ़े
न कम से कम कपड़ों में
क्या कसूर मेरा की न मैं
पिछड़ी हूँ न मैं आधुनिक
क्या कसूर मेरा भाए मुझे
सलवार सूट , साड़ी
न जीन्स, न मिनी स्कर्ट
क्या कसूर मेरा भाये न
मुझे सिगरेट , शराब,
लेट नाईट पार्टी या आउटिंग्स
क्या कसूर मेरा भाये
मुझे घर और परिवार ज़्यादा अपना
न की दुनिया और दोस्त
क्या कसूर मेरा की
न हूँ मैं पुरानी पीढ़ी सी न आधुनिक
क्या कसूर मेरा भाये शांति ज़्यादा
शोर शराबे से
क्या कसूर मेरा भाये न
तड़क भड़क हो गीत, खाना
या फिर पहनावा
क्या कसूर मेरा भाये
सादगी ज़्यादा हो भाषा, सोच या विचार
कैसे हटे कोहरा नज़रों का
जो तोलता है अपने पैमानों से
न देखे अंतरमन बस देखे बाहरी दिखावा
न देखे गुण बस देखे आवरण
न देखे मुझे मेरी नज़र से बस
नापे, तोले अपने ही बनाये नियमों से
अब क्या कसूर मेरा
अगर नहीं चाल, ढाल, बोल,
पहनावा जैसा चाहिए नज़रों को
क्या कसूर मेरा अगर है कोहरा
घना उनकी आँखों पर
आधुनिकता के नाम पर दिखावे
का फिर चाहे हो काम, नाम,
खान पान या पहनावा ….।।
— मीनाक्षी सुकुमारन