मुक्तक
राजनीति पर क्या कहें, उलझी है चहुँ ओर।
है चुनाव अति कीमती, सस्ती वाणी शोर।
भाड़े की जिस भीड़ पर, ठोंक रहे सब ताल-
उ न्हें समझ पाना भला, किसके बस में मोर।।
मृग मरीचिका जानते, रजनेता बड़ तेज।
सभी सुनाते मंच से, दे दो कुर्सी मेज।
ले लो पुड़िया हींग की, देती बढ़िया स्वाद-
दाल फराई तुम करो, हम सोते सुख सेज।।
महातम मिश्र ‘गौतम’ गोरखपुरी