संस्कार सब झांक रहे हैं
मानवता को कुचले हो
चोरी से बहार निकले हो
संस्कार सब झांक रहे हैं
जान बूझ कर फिसले हो
कुचक्र में तुम फंसे जा रहे
दलदल में तुम धंसे जा रहे
मौज का दावा करने वाले
बाहर तुम कहां निकले हो
सदाचार स्वाहा कर डाला
जिगर तुम्हारा हो गया काला
अब प्रेम दिखावा लगता है
हर मोंड़ पर तुम मचले हो
गोरे की भाषा बोल रहे
रेश्मी दामन तौल रहे
जमीर जला के चकाचौंध में
कैसे तुम अभी सम्भले हो
इंसानियत सहमी देखी इस (राज) में
चारो तरफ फरेब दिखता है आज में
ये दरख्त गुमां न कर जमाना देखने का
इस आबो हवा में नये नये निकले हो।
मानवता को कुचले हो
चोरी से बहार निकले हो
राज कुमार तिवारी (राज)
बाराबंकी देखी