आँखों का खेल
आँखों – आँखों का ये खेल निराला है।
निज अंतर का मंत्र तंत्र में डाला है।।
देखा पहली बार नहीं तुम कुछ बोली।
फिर भी चमकी युगल कपोलों पर रोली।।
पलकें विनत अधीर चरण युग ताला है।
आँखों – आँखों का ये खेल निराला है।।
नवल रूप की धूप गुनगुनी प्यारी है।
चली हस्तिनी चाल सभी से न्यारी है।।
चलती – फिरती कांत -शांत मधुशाला है।
आँखों – आँखों का ये खेल निराला है।।
बिना परस के हर्ष रोम में जागा है।
बँधा हृदय से हृदय बिना ही तागा है।।
बिना पिए ही पी ली उर ने हाला है।
आँखों – आँखों का ये खेल निराला है।।
रहा न जाए बिना तुम्हारे मुझे शुभे!
पल – पल भारी लगे एक पल नहीं निभे।।
सजनि तुम्हारे रंग – रूप में ढाला है।
आँखों – आँखों का ये खेल निराला है।।
सुकृत रचना रची ईश ने तुम बाले!
‘शुभम ‘ विरह के फूट गए उर के छाले।।
तुम ही मम संसार अमिय का प्याला है।
आँखों – आँखों का ये खेल निराला है।।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम’