जितेंद्र कबीर के मुक्तक-पोस्टर्स- 3
जितेंद्र कबीर के मुक्तक-पोस्टर्स की यह तीसरी कड़ी है. अब तक तो आप जितेंद्र भाई को भी भलीभांति जान चुके होंगे और उनके मुक्तक-पोस्टर्स को भी.
वैसे भलीभांति जान चुकना इतना आसान भी नहीं है. जिस प्रकार रास्ते में कितने मोड़ होते हैं पता नहीं चलता, उसी प्रकार जीवन में कितने मोड़ होते हैं कौन जाने! अपने को जानना और व्यक्त करना तो और भी मुश्किल है और मुश्किल को आसान करना तो कलाकार का काम ही है. आप लोग जानते ही हैं, कि जितेंद्र भाई न केवल कलाकार हैं, बल्कि एक उच्चकोटि के कलाकार हैं.
यह तो आप लोग जानते ही हैं, कि जितेंद्र भाई अध्यापक हैं, वो भी कला के अध्यापक! कला का अध्यापक होने का सीधा अर्थ है कला के प्रति बचपन से ही लगाव और पूर्ण समर्पण.
जितेंद्र भाई व्यवसाय से अध्यापक हैं और घर-गृहस्थी वाले तो हैं ही! अपनी कार्मिक जिम्मेदारियों और पारिवारिक जिम्मेदारियों को पूर्ण करने के पश्चात जो थोड़ा बहुत समय निकलता है, उसमें अपनी रचनात्मक संतुष्टि एवं विचार प्रकट करने के लिए कविताएं और मुक्तक लिखते हैं.
अक्सर कला को आसान समझा जाता है, पर ऐसा होता नहीं है. समाचार पत्र की एक सुर्खी थी-
“इस तस्वीर में कितने हाथी हैं? लोगों को तो 4 दिख रहे हैं, लेकिन ये सही जवाब नहीं”
इसमें सचमुच चार हाथी ही दिख रहे हैं, असल में होते सात हैं. फोटोग्राफर महाशय जैसी फोटो खींचना चाहते थे, वैसी फोटो खींचने के लिए उन्हें 1400 फोटोज़ खींचने पड़े. आखिर फोटोग्राफर ने एक ऐसा फ्रेम बनाया कि सभी 7 हाथी प्यास बुझाते तस्वीर में आ गए.
जितेंद्र भाई के मुक्तक भी हम जब पढ़ते हैं, तो ऐसा लगता है, कि ये तो बहुत आसान हैं, हम भी बना सकते हैं, लेकिन इनके पीछे कलाकार की कितनी तपस्या होती है, कलाकार ही बता सकता है!
जितेंद्र भाई का कहना है-
” शाम 5-6 बजे से लेकर रात दस ग्यारह बजे तक रोजाना दो या तीन मुक्तक लिख पाता हूं. वैसे विशेष रूप से उन्हें लिखने ही तो नहीं बैठता हूं, पर दिमाग में सोचना तो चलता ही रहता है. जब कुछ अच्छी सी पंक्ति बन जाती है, तो लिख लेता हूं और योरकोट या फिर और किसी कापीराइट फ्री एप या साइट पर अपनी पंक्तियों से रिलेट करता पोस्टर बना लेता हूं.”
प्रायः सभी लेखकों के साथ भी ऐसा ही होता है. रात को नींद में भी यही कुछ चलता रहता है. अब रसास्वादन कीजिए जितेंद्र कबीर के मुक्तक-पोस्टर्स का-
जितेंद्र कबीर के मुक्तक-पोस्टर्स की श्रेष्ठता के बारे में जितना कहा जाए, कम है. जब हम कुछ अच्छा पढ़ते-देखते हैं, तो अक्सर हमारे मन में एक प्रश्न उठता है-
“कविता या कला या साहित्य बैठकर सोचकर सृजित करते हैं या चलते-फिरते बन जाते हैं?”
कभी-कभी बैठकर सोचकर सृजित किया जाता है, वह अच्छा भी होता है, लेकिन वह बात नहीं आ पाती, जो मस्तिष्क में कोई विचार आने पर बिना प्रयास के तुरंत लिखा जाता है.