कविता

इंतज़ार तो सभी को है

भंवरो को है फूलों का, फूलों को शूलों का
हारों को है भूलों का, इंसानों को उसूलों का
पतझड़ के सताये पेड़ो को नन्हे से कोपलों का
हर पथिक को कठिनाइयों में ज्यो हौसलों का
सावन को है बरसात का,निदियाँ को रात का
मुश्किलों को रहता है जिस तरह से मात का
कैद परिंदों को भरने उड़ान, ज्यो आसमान का
हर गुम प्रेम कहानी को रहे है पहिचान का
हर हारे थके निराश्रित को खुशी के पल का
सारी दुनियाँ को रहे ज्यो काश और कल का
सांसो को हवाओ और धड़कनों को दिल का
बेघरों को घर का, मुसाफिरों को मंजिल का,
 भूखे को रोटी तो हारे हुए को रहे चोटी का
उंगली उठाने समाज को गलती बड़ी छोटी का
भक्त को भगवान का और प्रभु के दरश का,
मिल जाये मृदुल उत्पल चरणों के स्पर्श का
प्रेमी को प्रेमिका का, नदियों को सागर का,
फुटपाथ पर सो रहे इन बेघर को घर का
सरकार को योजनाओं का, राजनेताओं को चुनाव का,
जुआ में बैठे हुये जुआरी को एक सफल दांव का
 किसानों को फसलों का, बेरोजगार को रोजगार का
हर पाठक को आखिर में रहता है पुस्तक के सार का
रिश्वतखोरों को नोटों का, नेताओं को वोटों का,
जख्मों को मरहम का भी और रहता है चोटों का
उसी प्रकार इंतज़ार है मुझको तुम्हारा,
हा सच कह रही हूँ मुझको इंतजार है तुम्हारा
जिस तरह पुष्प को सुरभि का वैसे ही तुम्हारा
और मैं चाहती हूँ ऐसा ही रिश्ता रहे हमारा
हो सकता है! तुम्हे भी इंतज़ार हो मेरा।
जैसा मेरा है क्या वैसा ही ख्याल है तेरा।
— सुरभि उपाध्याय

सुरभि उपाध्याय

पोरसा मुरैना (मध्यप्रदेश)