सुहानी शाम
बरिश्ता कैफे के सामने अचानक मेरे कदम ठिठक गए। यही वो जगह है जहां हम अक्सर रोहन के साथ आया करते थे । मुझे यहां की काफी बहुत पसंद थी मगर रोहन को चाय ज्यादा पसंद थी । मैं अक्सर उसे छेड़ती थी “काफी हाऊस में आकर चाय पीते हो”वो भी इतरा कर कहता “चाय में जो ज़ायका है वो काफी में कहां!”घंटों हमारी इस बात पर बहस होती ।हम दोनों में से कोई हार मानने को तैयार नहीं होता।
कालेज खत्म होने के बाद वो यू एस चला गया धीरे -धीरे हमारी
बातचीत कम होने लगी । दोनों अपनी अपनी जिंदगी में व्यस्त हो गए। मगर आज भी बरिश्ता कैफ के सामने से गुजरने पर उस सुहानी शाम की यादें मन में ताज़ा हो जाती है।
— विभा कुमारी “नीरजा”