दीवारें चाहे
मिट्टी से लिपि हों
या फिर ईंट , पत्थर, गारे
या सीमेंट से
सुनती है सब
जो घटता है इनके बाहर
या फिर अंदर
सुनती हैं ये
सिसकियां भी
चहचहाहट भी
खिलखिलाहट भी
महसूस करती हैं
उदासियों को
तन्हाईयों को
बेबसी को
प्यार को
गुस्से को
दीवारें भली ही
होती हैं बेजान
पर बसी होती है
जान उन अपनों की
जो इसके इर्द गिर्द
रहते हैं
बस्ते हैं
पनपते हैं
टूटते हैं
बिखरते हैं
जीती हैं ये दीवारें
बेजान होकर भी
सुनती हैं हर एहसास को
सुनती हैं हर आहट को
सुनती हैं हर आस को
सुनती हैं हर व्यथा को
सुनती हैं हर दर्द को
जीती हैं ये दीवारें भी
क्योंकि इसी में तो
बसी होती है एक पूरी
दुनिया
जन्म से बचपन से यौवन से
अधेड़ से बुढापा तक की
हर खुशी
हर दुःख
की साक्षी रहती हैं ये दीवारें
जन्म से मरण
तक का पूरा जीवन
बेजान होकर भी जीतीं हैं
ये साथ साथ हर कदम
हर मौसम हर सुबह हर दिन
हर शाम हर रात।।
…मीनाक्षी सुकुमारन