मैं भारत का संविधान हूं
शरशय्या पर लेट चुका हूं
अब तक सब कुछ देख चुका हूं
जितने यहां पे काम हुये हैं,
सब में हम बदनाम हुये हैं
मतलब की रोटी सभी सेंकते,
पन्ने फाड़ के सभी फेंकते
गलत सभी अनुवाद हैं करते,
मेरी गरिमा बर्वाद हैं करते
जो होता वो कहां लिखा है
बुझती यहां की सारी शिखा है
चंद लोग फल फूल रहे हैं
बाकी फांक धूल रहे हैं
चीर हरण क्यों मेरा करते
मानवता अपहरण हो करते
मैं भारत का संविधान हूं
आज कहां मैं विद्यमान हूं
कितने खंजर घोपेगे तुम
कितने पन्ने रोपोगे तुम
दुशासन की सभा है लगती
यहां कहां बातें हैं लगती
सबका तो ईमान बिका है
कहां पे भारत आ के टिका है
अवतार कोई जब तक न होगा
सुधार कोई तब तक न होगा
बीमारी अब बढ रही है
अंतिम छोर तक चढ़ रही है
राजकुमार तिवारी “राज”