कथा साहित्यकहानी

सत्य या मिथ्या

सत्य या मिथ्या
अनीता झील के किनारे बनी पगडंडी पर इधर से उधर टहल रही थी। उसके पांव रूकने का नाम नहीं ले रहे थे। पर आज उसके कदमों में पहले जैसा उत्साह नहीं था। झील का निर्मल जल कल-कल कर बह रहा था। सूरज की रोशनी भी धीमीं होती जा रही थी। चारों तरफ अंधेरा पसर रहा था। पर अनीता को किसका भय था, क्या खोने का डर था? उसके फोन की घंटी लगातार बज रही थी। पर वह फोन को उठाना नहीं चाहती थी।फ़ोन कुछ देर बजकर थम जाता था।आज दोपहर से ऐसा कई बार हो चुका था।
पर उसकी बला से। झील का पानी तेज गति से बहता जा रहा था। एक लहर दूसरी लहर पर सवार हो रही थीं। जैसे कहीं पहुंचने की दौड़ में लगी हो?आज से पहले उसनें कभी झील के पानी को इतना अशांत नहीं देखा था। क्या यह अशांति सिर्फ झील के पानी में ही थी या आज उसका मन भी पूरी तरह अशान्त था?
वह झील के बहते पानी को दूर तक बहते देखती रही। उसने एक सरसरी नजर अपनी घड़ी पर डाली। समय देखकर भी आज वह विचलित नहीं हुई थी। उसने अपना बैग कंधे पर डाला और घर की तरफ चल पड़ी। उसके कदम बहुत ही धीमें थे। वह रोज की तरह दौड़ नहीं रही थी। घर का माहौल शांत था।
पति और सास बिल्कुल चुप थे। वह उसे देखकर कुछ नहीं बोलें। रोज चिल्लाने वाला पति भी आज चुप था। तीनों एक दूसरे को देख रहें थे। पति ने आज पहली बार उसके हाथ से बैग लिया और चुपचाप किचन की तरफ चला गया। पर अनीता को आज किसी की परवाह नहीं थी। उसे घर खाली-खाली दिख रहा था। पूरा कमरा सफेद रोशनी में चमक रहा था। पर उन तीनों के मनों में घोर अंधकार छाया हुआ था।
वह दीवार पर लटकी,अनु की तस्वीर देख रही थी। उसका हंसता हुआ चेहरा, उसे ही देख रहा था। तस्वीर को एकटक देखते-देखते उसकी आंखें भर आई। वह फफक कर रोने लगी। उसने बेटी की तस्वीर पर हाथ फेरा। और मन ही मन कुछ बड़बड़ाई,फिर जाकर सोफे पर पसर गई।अनीता उठो मुँह-हाथ धो लो। पति का स्वर आज बहुत सहज था। पर वह सोफे पर ही पड़ी रही। उसकी आंखें पूरी तरह लाल थीं। घर के बाहर भी असीम शांति छाई थी। गली में कोई शोर नहीं था। इतनी शांति इससे पहले उनके घर में कभी नहीं थी। आज उसे घर में सभी अनजान लग रहे थे।पति के कई बार पुकारने पर भी, वह अपनी जगह से नहीं हिली थी।वह अपने कमरे की तरफ चल पड़ी।
क्यों बच्चे अपनी मनमानी करते हैं,क्यों अपनी चाहतों के आगे इस तरह मजबूर हो जाते हैं?वह इन्हीं विचारों में बेसुध पड़ी थी। उसे समय का बिल्कुल भी ध्यान नहीं था। गेट पर हो रही खटखट से तीनों गेट की तरफ बढ़ने को हुए, पर उनके कदम उनका साथ नहीं दे रहें थे। आखिर अनीता ही गेट की तरफ चल पड़ी। गेट खोलते ही दूधवाला सामने नजर आया। आंटी आज गेट खोलने में बड़ी देर लगा दी। दूधवाला कुछ पूछना चाहता था, पर उसने रोज की तरह दो पैकेट दूध  लिया और बिना समय गवाएं,अन्दर आ गई।उसे पता था कि सारी गली को पता चल चुका है कि अनु घर से—–। दूधवाला भी बिना कुछ कहे, अगले दरवाजें की तरफ बढ़ गया।दूध लेकर वह किचन की तरफ बढ़ गई। किचन में चाय की ट्रे लिए उसका पति सामने खड़ा था। उसने एक कप चाय  ली और दोबारा ड्राइंग रूम में आ गई। उसे पति की कोई परवाह नहीं थी। आज वह हर वो काम कर रही थी जो उसके इतने साल के वैवाहिक जीवन में नहीं हुए थे। वह पति तथा सास को पूरी तरह नजरअंदाज करने पर तुली थीं। चाय की प्याली में से गरमा-गरम भाँप उठ रही थी।वह भाँप को देखे जा रही थी।
आज उसकी स्थिति बिल्कुल विचित्र थी। पूरे घर में सन्नाटा छाया हुआ था। ना चाहते हुए भी उस में चाय की चुस्कियां भरनी शुरू कर दी। सामने पति बैठा हुआ,उसे देख रहा था।वह चिल्लाया कुछ बोलो भी,अनीता। आज परिवार पर दुखों का पहाड़ टूट पड़ा है। हमें एक-दूसरे के सहारे की जरूरत है। सहारा शब्द सुनकर, उसका चेहरा क्रोध से तमतमा गया। आज उसका चेहरा बहुत भयानक लग रहा था।
पति बिना कुछ कहे ही चल पड़ा, चाय की प्याली किचन में रखकर वह वापस आ गई। उसने कमरे की लाइट बंद कर दी। तीनों आज अकेले थे। पति के शब्द उसके कानों में जहर घोल रहें थे। सहारा, वह गुस्से से भर गई,सहारा माय फुट! वह फिर बेटी अनु के बारे में सोचने लगी। हमेशा चुपचाप रहने वाली मेरी बेटी में इतना साहस कहां से आ गया? उसने अपनी माँ से भी इतनी बड़ी बात छुपा ली। क्या उसे मुझ पर भी भरोसा नहीं था? क्या मैंने कभी उसकी इच्छा पूरी करने में किसी किस्म का विलंब किया था। फिर क्यों, आखिर क्यों?
उसकी बैचैनी बढ़ती जा रही थी। वह निराशा के अथाह सागर में डूबती जा रही थी। उसे दूर-दूर तक कोई किनारा दिखाई नहीं दे रहा था। क्या वह पहली बार उदास हुई थी? क्या इससे पहले वह जीवन में निराश नहीं हुई थी। फिर आज इतना गुस्सा क्यों? वह सोफे पर पसर गई। कपड़े बदलने को उसका जी नहीं जा रहा था। काश उसनें भी बीस साल पहले ऐसा करने का साहस किया होता तो वह अपना प्यार अपना दोस्त ना खो देती।
अनीता आज बरसों बाद अपने अतीत में खो गई। वह रवि को बहुत पसंद करती थी। वह उसका पहला प्यार था। उसके बिना वह अपने जीवन की कल्पना भी नहीं कर सकती थीं। वह सिर्फ उसका दोस्त नहीं था,पर सब-कुछ था। सभी गुण थे, उसमें।पढ़ा-लिखा था,बहुत शरीफ था। उसने कभी अपनी सीमाएं पार नहीं की थी। वह घंटों उसके साथ रहती थीं। पर उसकी शराफत के क्या कहने थे? गली मोहल्ले में सभी उसके जैसा बनना चाहते थे।पर वह सबसे अलग था।
दोनों बचपन से ही साथ-साथ थे।खेलकूद, पढ़ाई-लिखाई। सभी कुछ तो साथ-साथ किया था। दोनों का बचपन कैसे गुजर गया,पता ही नहीं चला था?जब रवि के चेहरे पर हल्की- हल्की दाढ़ी मुछ निकल आई थी। वह उसे कितना परेशान करती थी? वह उसे खूब छेड़ती थीं। अब तुम सुंदर नहीं लगते। वह भी चिढ़कर उसे मारने को दौड़ता था। उसे रवि की यादें थोड़ा सुकून देती थी,पर कुछ ही समय के लिए। वह फिर वर्तमान में लौट आई।
बिस्तर पर करवट बदलते-बदलते वह थक गई थी। उसे अपने कपड़े बदलने का भी ध्यान नहीं था।उसनें कमरे की लाइट जला दी।सफ़ेद रोशनी उसकी आँखों में चुभ रहीं थीं। वह कपड़ों की अलमारी की तरफ बढ़ गई। अलमारी कपड़ों से भरी थी। हर खाने में अनु के ही कपड़े लटक रहे थे। वह कपड़ों के ढेर में अपने कपड़े तलाश रही थी। वह हमेशा  परेशान होती थीं।उसकी पसंद का एक भी कपड़ा उसे नजर नहीं आ रहा था। सभी कपड़े बेटी की पसंद के थे। पिछले कुछ वर्षो से वह ही उसके कपड़े पसंद करती थी। उसने मन मारकर हल्के पीले रंग का नाइट ड्रेस पहन ली। यह भी उसे बेटी की याद दिला रहीं थी। मम्मी,पीला रंग आप पर बहुत खिलता है।
मेरी मम्मी जैसी सुंदर औरत दूसरी नहीं है। वह बेटी की बातों पर शरमा जाती थी। बस भी करों, अनु क्यों अपनी मम्मी का मजाक उड़ाती हो?नहीं मम्मी, सच कह रही हूँ।आप बहुत सुंदर हो। काश मैं भी आपकी तरह सुंदर होती।वह भी प्यार से उसके गाल थपथपा देती। अनु भी इस प्यार का जवाब उसे गले लगा कर देती थीं।मेरी प्यारी मम्मी!
वह उठकर ड्राइंग रूम में आ गई। वह खुद से बोली, अगर मम्मी से इतना प्यार होता तो ऐसा कदम नहीं उठाती है।कम से कम मुझें तो बताती। तुम्हारा प्यार झूठा था। तुम बस मम्मी को खुश करने के लिए की झूठी प्रशंसा करती रहती थी। असल में तुम्हें मेरी कोई चिंता नहीं थी। मैं तो तुम पर बहुत भरोसा करती थी। इतना भरोसा तो मुझें खुद पर भी नहीं था। पर अब इन बातों का क्या फायदा था? तुमने तो अपनी मनमर्जी कर ली थी। अपनी मर्जी से अपना भविष्य चुन लिया हैं।
जरूर हमारे ही लाड़- प्यार में कोई कमी रह गई होगी, वरना दुनिया के घर में बेटियाँ है। कोई अपनी मम्मी को इतना दुख थोड़े ही देती है। प्यार सभी करते हैं। इसमें नया क्या हैं?  जमाना बदल चुका है, मैं सब कुछ समझती हूँ।पर अपनी माँ पर तो भरोसा करना चाहिए था। काश तुम मुझें बता देती। मैं इस पर विचार करती,तुम्हारी दुश्मन थोड़े ही थीं। पर अब क्या फायदा इन बातों का। वह खुद ही बड़बड़ा रहीं थी। लाइट बंद करके वह लेट गई।पर उसकी आंखों में नींद कहाँ थी?
उसे बेटी की इस हरकत पर बहुत अफसोस हो रहा था। वह भी तो किसी की बेटी थी।पर उसने अपने परिवार की इज्जत की खातिर अपनी खुशियाँ कुर्बान कर दी थी।उसने एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा था। काश तुम भी मेरी बेटी,कह कर वह आजकल के जमाने को कोसने लगी। उसने मोबाइल में टाइम देखा, अभी तीन बज रहें थे। पर नींद का कोई नामो-निशान नहीं था। वह किचन की तरफ बढ़ गई। उसने एक गिलास पानी पिया। वह भी एक ही घूंट में, जैसे वह पता नहीं, कब की प्यासी थी?
उसका सिर दर्द से फटा जा रहा था।उसने ना चाहते हुए भी गैस पर चाय चढ़ा दी। पास के दोनों कमरों में भी लाइट जल रही थी। उसे पता था पति और सास भी जाग रहे हैं। उसे सास पर बहुत गुस्सा आ रहा था।इसने ही मेरी बेटी को बिगाड़ कर रख दिया था। मुझें तो उसे समझाने तक नहीं दिया कभी,खुद ही माँ बनकर बैठ गई थी। इन्हीं के लाड- प्यार के कारण,और उसकी आंखें भर आई। चाय का पतीला उबल रहा था। उसने जल्दी से उसमें दूध डाल दिया। अब चाय बहुत शान्त थीं। चाय की पत्ती के दाने भी धीरे-धीरे उछल रहें थे।
उसनें चाय गिलास में डाली और सोफे पर बैठ गई। वह जैसे- जैसे चाय की चुस्की ले रही थी।उसे अनु अपने सामने बैठी चाय पीती दिख रही थी। पर यह उसका वहम था, वहां कोई नहीं था। वह चाय पीकर सोफे पर आंख मूंदकर लेट गई। उसे पता ही नहीं चला,कब सुबह हो गई? वह उठना नहीं चाहती थी। पर मन मार कर खड़ी हो गई। वह रोज की तरह ही अनु का दरवाजा खटखटाना चाहती थी।पर सास की आवाज सुनकर ठहर गई। कहां जा रही हो, किसे ढूंढ रही हो?अनु यहाँ नहीं है—-।
उसका मोबाइल बज रहा था। वह मोबाइल के पास जाना नहीं चाहती थी। पर सांस ने उसे ज़ोर देकर कहा फोन तो उठा लो। ना चाहते हुए भी उसनें फोन उठा लिया। फोन अनजाने नंबर से था। उसने फोन कान से लगाया। अनीता, कैसी हो? मैं रवि बोल रहा हूँ।उसे अपने कानों पर यकीन नहीं हो रहा था। अरे कुछ तो बोलो। उसकी आंखें नम हो गई थीं। शब्द जैसे गुम से हो गए थे।अच्छा सुनो, अनु!वह फोन पटक देना चाहती थी। अन्नू ने शादी कर ली है, मेरे बेटे के साथ।
हाँ, बस एक ही समस्या है। क्या, कबऔर कैसे? उसने एक साथ कई सवाल कर दिए। दोनों एक -दूसरे से प्यार करते थे। तुम्हें इसे स्वीकार करना होगा।उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था। यह सत्य है या मिथ्या! पर कहीं ना कहीं उसे सुकून मिल गया था। उसका चेहरा खिल गया। वह खुद से कह रही थी।” यह मिथ्या नहीं सत्य हैं”
अनिता,मैं कल से ही तुम्हें फोन करने की कोशिश कर रहा हूँ। तुम अनु की चिंता मत करना। अब वह मेरी बहू है, मेरी बेटी है।और यह मिथ्या, नहीं सत्य है,अनिता!उसकी आँखे एक बार फिर झरनें की तरह बह रही थीं।

राकेश कुमार तगाला

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