लघुकथा

सोहनलाल

बाहर झुलसा देने वाली चिलचिलाती धूप थी, बावजूद इसके तहसील में आवश्यक कार्य होने की वजह से वह घर से बाहर जाने की तैयारी कर रहा था।

भगवान की मूर्ति के सामने हाथ जोड़कर उसने चारखाने वाला खादी का गमछा सिर पर लपेटा और बाहर निकल ही रहा था कि उसकी चौदह वर्षीया पोती अचानक सामने आ गई।
 “दादू ! यह चारखाने का गमछा लपेटकर तो आप पूरे मुस्लिम लग रहे हो।” कहकर खिलखिलाते हुए वह घर के अंदर भाग गई।
“अरे बेटा, किसी कपड़े के इस्तेमाल से कोई हिन्दू- मुस्लिम नहीं हो जाता…और फिर मैंने यह गमछा तो खुद को धूप के प्रकोप से बचाने के लिए लिया है।” कहकर थैला अपने कंधे पर टांग वह निकल पड़ा।
लॉक डाउन के बाद दफ्तर खुलने की वजह से तहसील वाले शहर में लोगों की भारी भीड़ थी। अपना कार्य निबटाकर वह गाँव जानेवाली बस पकड़ने के लिए तेजी से चल रहा था कि अचानक उसका हाथ बगल से गुजर रही युवा महिलाओं की टोली में से किसी के जिस्म से छू गया।
इससे पहले कि वह कुछ समझ पाता, एक झन्नाटेदार थप्पड़ ने उसे दिन में तारे दिखा दिए। उसका गिरेबान पकड़े वह लड़की चिल्ला रही थी, “शर्म नहीं आती, इस उम्र में लड़की छेड़ते हुए ? घर में बहू बेटियाँ नहीं हैं क्या ?”
 पल भर में ही तमाशबीनों की भारी भीड़ जमा हो गई। हंगामा बढ़ता देख एक नेता टाइप व्यक्ति सबको परे धकेलता हुआ उसके नजदीक पहुँचा और कसकर एक झन्नाटेदार थप्पड़ उसे रसीद करता हुआ उसपर गालियों की बौछार कर दी।
हत्प्रभ सा वह चाहकर भी अपनी बेगुनाही के बारे में कुछ नहीं बता सका। उसके सिर पर बँधा चारखाने का वह खादी गमछा देखकर उस नेता टाइप व्यक्ति का गुस्सा सातवें आसमान पर जा पहुँचा।
‘जरूर यह कोई मुस्लिम ही है’ सोचकर उसकी आक्रामकता और बढ़ गई।
 “बोल, क्या नाम है तेरा ? मोहम्मद ?…..असलम ?….या सलीम ?” और हर सवाल के साथ उसके थप्पड़ों की गति और तेज हो जाती।
थप्पड़ों की बौछार झेल रहा वह व्यक्ति कुछ देर बाद असहनीय पीड़ा से बैठे बैठे ही एक तरफ लुढ़क गया। उसके लुढ़कते ही भीड़ तीतर बितर हो गई।
किसी अज्ञात शव के पाए जाने की सूचना पाकर पुलिस ने तफ्तीश शुरू की। उसके कंधे पर चिपके झोले में कुछ कागजातों के साथ उसका आधार कार्ड भी मिला, जिसपर उसका नाम लिखा था.. सोहनलाल…!

*राजकुमार कांदु

मुंबई के नजदीक मेरी रिहाइश । लेखन मेरे अंतर्मन की फरमाइश ।