नदी
नहीं है ख्वाहिश कि दरिया से जा मिलूं अभी
कुछ और लोगों की प्यास बुझे कुछ और बहुँ मैं अभी
फेंक दे मानव अपनी उत्कंठा और वेदना इस बहाव में
रुको मत बस बढ़े चलो क्या रखा है ठहराव में
विसर्जित कर दो सारी गंदगी मुझे नहीं है मलाल
फेको अपने द्वेष विकार और बनो तुम बेमिसाल
देने के लिए तुम्हें जीवन सदियों से बहती आई हूं
चट्टानों से गिरती पड़ती फिर भी सिर्फ मुस्काई हूं
स्वार्थ तज कर भी औरों के लिए जीना होगा
तटिनी का तो काम है उसे सिर्फ बहना होगा
थोड़ी देर और बहुँ फिर सागर से जा मिलूं
कितने प्यासे तकते होंगे उन्हें भी तो जीवन दे दूँ
दरिया से जाकर मिलना ही मेरा है ये धर्म
बहा ले जाऊं तेरी सारी पीड़ा ये भी है कर्म
हां मैं नदी हूं बहती रहती अविरल कल कल
धो लो अपने सारे मैल रहो तुम भी विमल निर्मल
— सविता सिंह मीरा