लघुकथा – समन्दर में दरिया
“तुझसे वो इतनी मुहब्ब़त करता है, तो फिर इस्लाम क्यों नहीं कुबूल कर लेता।” ज़ुबेर मियाँ बोले।
“अब्बू..! सुरेन्द्र को मेरे लिए इस्लाम कुबूल करने में कोई दिक्कत नहीं है।” साईदा बोली।
“फिर और वज़ह…?” ज़ुबेर मियाँ की ज़ुबान और सख़्त हुई।”
“दरअसल अब्बू… उनकी दो छोटी बहने हैं। दोनों बहने अपने मरहूम अम्मी व अब्बाज़ान को जानती तक नहीं। सो अपनी बहनों की शादी किये बगैर सुरेन्द्र न तो इस्लाम कुबूल कर सकता है; और न ही मुझसे निकाह।” ज़ुबेर मियाँ के और करीब जाते हुए साईदा बोली।
“तो सुन लो…नादान लड़की…! तुझे मेरे पसंद के लड़के से ही निकाह करना होगा। मैंने लड़का पसंद कर लिया है। मुझे तेरी जिंदगी भी तो देखनी है। और तेरी वजह से मैं अपनी शानो-शौकत को बे-आबरू नहीं होने दूँगा।” कहते हुए जुबेर मियाँ वहाँ से चले गये।
“नहीं अब्बू… नहीं.. नहीं…! समझाओ ना अम्मीज़ान अब्बाज़ान को। सुरेन्द्र के बगैर मैं जिंदा नहीं रह सकती। नहीं…नहीं….”
तभी “साईदा… साईदा… क्या हुआ..क्या हुआ तुम्हें…?” काशिफ के च़ंद लफ्ज़ों से भिलाई के मैत्री गार्डन के पत्थर की बेंच पर बैठी साईदा की तंद्रा भंग हुई। एक जनवरी 2015 की यादें दूर हुई। पास में ही उनके दोनों बच्चे मियाज़ और परवेज़ भी थे। जैसे ही काशिफ ने साईदा का हाथ अपने हाथों में लिया, उसकी नजर बेंच पर खुदे शब्दों- “सुरेन्द्र-साईदा 15” पर पड़ी। साईदा झेंप गयी। पल भर के लिए दोनों खामोश रहे। फिर अपने होठों पर मुस्कान बिखेरते हुए काशिफ बोला- “साई…! चलो अब घर चलते हैं। मना लिये न… नया साल 2022। छोड़ो न साई इन सब को। वो तेरा कल था; और मैं आज हूँ। अतीत की यादों से वर्तमान को ख़ुशनुमा बना लें तो ज़िंदगी ज़न्नत लगती है।” फिर साईदा अपने दिलेर शौहर काशिफ मियाँ के सीने में ऐसे समा गयी, जैसे समन्दर में दरिया।
— टीकेश्वर सिन्हा “गब्दीवाला”