कविता

प्राण के बाण 15 वीं किश्त

सोते हुए सपूतो जागो तुम्हें जगाने आया हूँ।
क्या हैं हाल चाल बस्ती के आज सुनाने आया हूँ।।1।।
जिस धरती पर स्वर्ग रचा था संस्कार के रंगों ने।
उस पर दावा ठोक दिया था लुच्चों और लफंगों ने।।2।।
बरगद की छाती पर पनपे पीपल से इतराते हो।
जड़ जमीन पर टिकी नहीं पर बार बार बल खाते हो।।3।।
रिश्वत की बिन्दास बेटियाँ अड़ी हुईं नादानी पर।
सदाचार बूढ़ा लगता है भ्रष्टाचार जवानी पर।।4।।
जिसकी जितनी जेबें भारी उतना उसका कद ऊँचा।
जिसकी जितनी तिकड़म ऊँची उतना उसका पद ऊँचा।।5।।
चली योग्यता ठोकर खाती विद्वत्ता रह गई धरी।
चाटुकार ले उड़े चिरोंजी पिछलग्गों को हरी परी।।6।।
सोचा था ये कर्कश कागा खुले कण्ठ से गा लेंगे।
कोयल की संगति में रह कर बिगड़ा राग बना लेंगे।
लेकिन यह क्या हुआ कि कोयल गाँव गाँव तो जाती है।
कुहू कुहू की जगह आजकल काँव काँव चिल्लाती है।।7।।
— गिरेन्द्रसिंह भदौरिया “प्राण”

गिरेन्द्र सिंह भदौरिया "प्राण"

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