देश प्रेम को जगा
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देश प्रेम को जगा न जाति भेद में मलीन।
रंच मात्र राग द्वेष के न हो कभी अधीन।।
पेट पालते हुए बनें न ढोर कीर मीन।
जाग! जाग!!जीव मूढ़ चेत हो बनें प्रवीन।।
-2-
देह को न रंग मीत रंग चित्त का सु- गेह।
गेह हाड़ माँस में न लीन हो बने विदेह।।
शेष कर्म के सभी अधीन त्याग रे सनेह।
योनि एक ही नहीं मिले सदा न देह खेह।।
-3-
आज, आज भी नहीं रहा न देख मीत मीन।
एक-एक से मिला बना सकाम तीन-तीन।।
भूलना न देश धर्म भूलना न हो मलीन।
कौन जो मरा न हो सदंभ प्राण से न हीन।।
-4-
जानता न कौन है सुकर्म का जले सुदीप।
स्वाति बूँद जो गिरे सजे सु रासना सुसीप।
पुण्य के प्रताप से बने हुए यहाँ महीप।
आज के बिना अतीत है हुआ सदा प्रतीप।।
-5-
रीति नीति प्रीति का प्रभाव है बड़ा महीन।
योनि-योनि जीव में भरे सु अंश छीन पीन।।
काल से बचे नहीं महीप, वीर, दीन- हीन।
फूल के स्वरूप के सुगंध, रंग, रूप तीन।।
रासना =मोती।
— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम्’