हास्य व्यंग्य

कबीर एक चाहिए

परम् सौभाग्य का विषय है कि जब हमने इस दुनिया की धरती पर पदार्पण किया और कुछ करने के योग्य हुए तो हमने पाया कि यह समाज जिसके मध्य रहकर हम निर्विघ्न रूप से साँस ही नहीं ले रहे ;वरन रह भी रहे हैं।इस अत्यधिक सुधरे हुए समाज में हमारे करने के लिए कुछ भी नहीं बचा ; अब आप ही बताइए भला कि इस समाज के लिए क्या नया करके हम अपना नाम मुस्कराते हुए फोटो सहित अखबार की सुर्खियों में छपवाएं कि सारा देश और समाज धन्य- धन्य कह उठे कि वाह ! ‘देश प्रेमी’ जी आप तो आप ही हैं ;जो आपने समाज को ऊपर उठाकर कहाँ से कहाँ पहुंचा दिया। यदि आप नहीं होते तो इस समाज और देश का क्या होता! ये वहीं का वहीं पड़ा रह जाता।पर खेद है कि क्या करें ;करने के लिए ,अपने समाज सुधारक हाथ दिखाने के लिए कुछ भी शेष नहीं है।सब कुछ पहले से ही ठीक – ठाक मिला है।

साहित्य की किताबों में पढ़ते हैं कि आज से छः सात सौ वर्ष पहले समाज के विभिन्न धर्मों ,मज़हबों ,जातियों ,वर्णों के बीच गहरी खाइयाँ बनी हुई थीं, जिन्हें पाटने के लिए एक साहसी समाज सुधारक संत कवि कबीर ने अपने दोहों के फावड़े चला- चला कर देश में घूम – घूम कर दिन- रात पसीना बहाया, पर कह नहीं सकते वे अपने सपनों को साकार करने में कितने सफल हुए।हाँ ,इतना अवश्य हुआ कि उनके सुधार की बात सुनकर ऐसा लगा कि लोगों के कानों में सीसा पिघला कर डाला जा रहा हो।कबीर न हिंदुओं को अच्छे लगे और न मुसलमानों को।क्योंकि उन्होंने जो कुछ भी कहा वह भले ही सत्य हो ,पर करेले जैसा कड़वा ही था।आप जानते हैं कि करेला चाहे कितना ही गुणकारी हो ,सबको प्रिय नहीं होता।यही बात कबीर के समय में कबीर वाणी के लिए भी थी।जैसे सुअर को कीचड़, गुबरैले को गोबर,मुर्गे को बांग, मुर्गापसंद को टाँग,हालाप्रिय को नाला,मिठाई को लाला,चरित्रहीन को घोटाला, नेताजी को माला -दुशाला,दोस्तों को प्याला, सपेरे को नाग काला ;पसंद है। वैसे ही खाइयों के वासियों को कबीर नापसंद थे। पर क्या करें : ‘जो आया जेहि काज सों, तासे औऱ न होय।’ के अनुसार तो कबीर दास जी जिस काज से आए थे ,उसमें उन्होंने कोई कमी नहीं छोड़ी:-

– ‘अरे इन दोऊ राह न पाई।
हिंदुन की हिंदुआई देखी, तुरकन की तुरकाई।
हिन्दू अपनी करें बड़ाई, गागर छुअन न देई।
वेश्या के पामन तर सोवें, यह देखो हिंदुआई।
मुसलमान के पीर औलिया, मुरगा मुरगी खाई।।’

आज का समाज खाइयों में नहीं ; हिमालय की ऊंचाइयों में निवास कर रहा है।हर वर्ग ,वर्ण,जाति के अपने ऊँचे- ऊँचे पहाड़ हैं, जिन पर इधर – उधर उगाए गए सुंदर कैक्टस के झाड़ हैं,कोई किसी से छोटा नहीं है। सब बड़े हैं। अपनी -अपनी तर्क-संहिता पर अड़े हैं। ऊँच -नीच ,छुआछूत,भेदभाव,असमानता – कबीर काल से भी ऊँची है।लेकिन हॉस्पिटल की उस टेबिल पर जहां उसे रक्त लेना है, जाति ,वर्ण भेद भुलाकर देवता हो जाता है आदमी।भोजन पानी किसी निम्न वर्ण का स्वीकार नहीं ,परंतु यहाँ कोई इनकार नहीं। बस जान! जान !!औऱ जान!!! और किसी से नहीं कोई पहचान।किसी भी तरह बचे जान।चाहे किसी का भी लहू भर दो , पर मरते हुए को जिंदा कर दो।ये भेद भाव, छोट बड़ाई बस चौके से चौकी तक ही है। वास्तव में समाज बहुत ऊँचाई पर आसीन हो चुका है। अब तक तो गधे को बाप बनाने में भी परहेज नहीं था,पर अब तो गधा ही नहीं , सुअर,श्वान या बिना स्नान शूद्र भी चलेगा।जरूरत जब आन पड़ी तो अपनी पवित्र आत्मा को भी छलेगा। मर ही गया तो अपने हाथ भी नहीं मल सकेगा।इसलिए पहले जान, फिर कोई औऱ सामान।सारी हेकड़ी चूर – चूर। समय की माँग है ,होना पड़ा मजबूर। अब नहीं कहता दूर -दूर।पता नहीं कहाँ हो गया परिजन सहित पेशेंट का अहं काफ़ूर।

याद आता है कभी संत कबीर ने सही कहा था। जो तब तो लगता था तमाचा ,पर आज समझ में आ रहा है वह था जगाने का बाजा।पर सच की आवाज सुनना ही कौन चाहता है। अपने पैमाने से दुनिया को नापता है।जो समझता है अपने को ऊँचे पहाड़ पर , वह वास्तव में बनाए बैठा है घर आड़ पर। कुएँ का मेढक जब कुएँ से बाहर आया तो उसे बाहर बड़ा – बड़ा दृश्य भी नज़र आया। बेचारा बहुत ही शरमाया।अपने आनन्द को स्वयं ही धक्का लगाया।सड़े हुए जल को पिया और पिलाया।कुल मिलाकर बहुत ही भरमाया।समय भी गँवाया। पर आँख जब खुली तो एक नया जगत ही हुआ नुमाया।जब तक पड़ा रहा दिल दिमाग पर भ्रम का साया , नए युग में समझदार बहुत पछताया।नासमझ कभी पछताते नहीं। क्योंकि अपने को छोड़ किसी को सही बताते नहीं।

मुझे लगता है कि आज भी एक कबीर चाहिए।जो अहंवादियों की आँखें खोले ही नहीं ,पुतलियाँ बाहर लाकर दिखला दे कि देख दुनिया कितनी बड़ी है। तेरी अंहवादिता आज भी इतनी कड़ी है,कि तू आँखें बंदकर दिन में भी अंधा है। तू निशाचरी उलूक है या बंदा है? यहाँ किसी का खून हरा है ,किसी का लाल है । किसी का काला है किसी का दहकता लावा है। वर्ण भी तो खून के अनुसार ही है,आहार का प्रभाव है ।तमस, सत्व और राजस का जैसा स्वभाव है,वैसे ही भर देता उसमें बदलते चाव है।कबीर यहाँ आकर भी क्या करें, या तो वे आएँ ही नहीं,या आकर बेमौत मरें।कबीर जैसों का जीना मुहाल है, आदमी की आदमियत पर लग गया सवाल है। जो आदमी आदमियत की बात करे ,वहीं उठने लगता बबाल है। सब जगह सियासत का कमाल है। जहाँ भी देखिए उसी का धमाल है।

झूठों के साथ ही है जमाना। सच्चों का नहीं है कोई कहीं अपना।एक कबीर बेचारा इस युग के कवियों के बीच कबाड़ है।ये चमचों ,चापलूसों ,चुग़लों की चौपाल है।यहाँ कबीर क्या करेगा ,कविता ही निढाल है। कबीर एक साहस का नाम है। पर आज कवियों में वही तो नहीं है। बस जो कह दिया वही सही है।उसी का सम्मान है।उसके हाथ में लेखनी नहीं, व्हाट्सअप की कमान है।जिससे आप सबकी बड़ी अच्छी जान – पहचान है।इतने सबके बाद भी मुझे लगता है कि आज भी एक अदद कबीर चाहिए।

— डॉ. भगवत स्वरूप ‘शुभम्’

*डॉ. भगवत स्वरूप 'शुभम'

पिता: श्री मोहर सिंह माँ: श्रीमती द्रोपदी देवी जन्मतिथि: 14 जुलाई 1952 कर्तित्व: श्रीलोकचरित मानस (व्यंग्य काव्य), बोलते आंसू (खंड काव्य), स्वाभायिनी (गजल संग्रह), नागार्जुन के उपन्यासों में आंचलिक तत्व (शोध संग्रह), ताजमहल (खंड काव्य), गजल (मनोवैज्ञानिक उपन्यास), सारी तो सारी गई (हास्य व्यंग्य काव्य), रसराज (गजल संग्रह), फिर बहे आंसू (खंड काव्य), तपस्वी बुद्ध (महाकाव्य) सम्मान/पुरुस्कार व अलंकरण: 'कादम्बिनी' में आयोजित समस्या-पूर्ति प्रतियोगिता में प्रथम पुरुस्कार (1999), सहस्राब्दी विश्व हिंदी सम्मलेन, नयी दिल्ली में 'राष्ट्रीय हिंदी सेवी सहस्राब्दी साम्मन' से अलंकृत (14 - 23 सितंबर 2000) , जैमिनी अकादमी पानीपत (हरियाणा) द्वारा पद्मश्री 'डॉ लक्ष्मीनारायण दुबे स्मृति साम्मन' से विभूषित (04 सितम्बर 2001) , यूनाइटेड राइटर्स एसोसिएशन, चेन्नई द्वारा ' यू. डब्ल्यू ए लाइफटाइम अचीवमेंट अवार्ड' से सम्मानित (2003) जीवनी- प्रकाशन: कवि, लेखक तथा शिक्षाविद के रूप में देश-विदेश की डायरेक्ट्रीज में जीवनी प्रकाशित : - 1.2.Asia Pacific –Who’s Who (3,4), 3.4. Asian /American Who’s Who(Vol.2,3), 5.Biography Today (Vol.2), 6. Eminent Personalities of India, 7. Contemporary Who’s Who: 2002/2003. Published by The American Biographical Research Institute 5126, Bur Oak Circle, Raleigh North Carolina, U.S.A., 8. Reference India (Vol.1) , 9. Indo Asian Who’s Who(Vol.2), 10. Reference Asia (Vol.1), 11. Biography International (Vol.6). फैलोशिप: 1. Fellow of United Writers Association of India, Chennai ( FUWAI) 2. Fellow of International Biographical Research Foundation, Nagpur (FIBR) सम्प्रति: प्राचार्य (से. नि.), राजकीय महिला स्नातकोत्तर महाविद्यालय, सिरसागंज (फ़िरोज़ाबाद). कवि, कथाकार, लेखक व विचारक मोबाइल: 9568481040