कविता

चल चौसर खेले गौरी

चल खेले गौरी आज हम चौसर,
तुम्हें जितने का दे रहा हूं अवसर।
तीन भुवन सह लोक  के  स्वामी,
जग जीतने वाले  प्रभू  अंतर्यामी।
गौरी बोली सुन ओ मेरे भोलेनाथ,
खेलेंगे चौसर अपने  अपने  हाँथ।
भुवन में लग गया चौसर का दांव,
सूर्य देव छिपकर बैठे करते छाँव।
प्रथम दांव भोले ने डमरू लगाया,
हारे  सबकुछ त्रिशूल भी  गवाया।
बिंदु हार के नाग भी उतारन लागे,
ये सब देखत नंदी जी वहां से भागे।
मातु गौरी हाथों अपने चौसर फेके,
अवघड़ बाबा मुस्का के  सब  देखे।
गौरी बोली सब हार गए क्या स्वामी,
हो गये कंगाल मेरे तो अवघड़ दानी।
गौरी बचा हुआ है मेरा तो ये कैलाश,
लगा दांव जितने का बस यही आस।
कैलाश गंवा कर बोले मेरे भोलेनाथ,
पकड़कर बैठा चौसर वो खाली हाँथ।
लालच की आज देखो हुई बड़ी हार,
अहम पर हुआ है  देखो  बड़ा  प्रहार।
— सोमेश देवांगन

सोमेश देवांगन

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