कविता

दो कवितायेँ

(१)

हर बार खुशियों के दरवाजों से लौट आती हूँ मैं 

और सपनों को टूटते हुए देखकर
दुःख जाती हूँ मैं …….
हर बार ख्वाहिशों कि चाहत में
मन के एकांत में बंद भावनाओं का अनुभव  करते हुए
दुःख जाती हूँ मैं …….
यादों की स्मृतियाँ और
स्मृतियों से बने अनमोल घरौंदे
और एक पल में चकनाचूर
समय कि हर कड़ी को दोहराती
 खुद से खुद को समझाती
उन अनमोल यादों  से सिंचित
विश्वास और धैर्य को परिभाषित
जीवन के उतार-चढाव से
दुःख जाती हूँ मैं …..
( २)
सुदूर आसमान में सितारों के चादर  फैले थे
उजालों कि रात में चांदनी नहाई थी
सपनों कि दुनियां में गीत जब गुनगुनाए थे
मैंने बड़ी हसरतों से जब छूने कि कोशिश की
तो सब खाली – खाली था
सितारों  की जगह कुछ तारे टिमटिमाये थे
चांदनी को जब महसूस किया
तो जुगनुओं की रौशनी थी
गीतों को जब सुनना चाहा
तो कोयलिया कि कूक थी
मैं हैरान थी अपनी ही इस पहचान से….
मैंने तनिक आगे बढ़कर
जैसे ही अपने पैरों की पदचाप
को सुनना चाहा …
मेरे दिल के हर भावनाओं पर
कोहरे की धुंध ने अपनी जगह बना ली थी
और मैं ठगी सी अवाक् -अपलक
शून्य को निहार रही थी ……|

संगीता सिंह 'भावना'

संगीता सिंह 'भावना' सह-संपादक 'करुणावती साहित्य धरा' पत्रिका अन्य समाचार पत्र- पत्रिकाओं में कविता,लेख कहानी आदि प्रकाशित

6 thoughts on “दो कवितायेँ

  • संगीता सिंह 'भावना'

    आपका हार्दिक आभार विजय सिंघल जी

  • संगीता सिंह 'भावना'

    शुक्रिया सुधीर मलिक जी

  • संगीता सिंह 'भावना'

    आपका हार्दिक धन्यवाद गुरमेल सिंह जी

  • गुरमेल सिंह भमरा लंदन

    संगीता जी , बहुत बढिया कवितायेँ , मज़ा आ गिया .

  • सुधीर मलिक

    सुन्दर कविताएँ

  • विजय कुमार सिंघल

    बहुत अच्छी कवितायेँ, संगीता जी.

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