पिस रही हैं बेटियाँ
लड़कियों के लिए अलग से स्कूल हैं
ड्रेस है किताबें हैं
पुरस्कार में कापियाँ हैं
आठवीं तक दोपहर का भोजन
नवीं तक साइकिलें
बारहवीं बाद
गौरा कन्या-धन की एफ. डी.
चुनावी वर्षों में
ग्रेजुएट बाद स्कूटी
कहीं टैबलेट
समाज कल्याण के अतिरिक्त भी
अनगिनत छात्रवृत्तियाँ …
पन्द्रह अगस्त, छब्बीस जनवरी के दिन
नीली हरी बैंगनी गुलाबी
परिधानों में सजी- धजी पंक्तिबद्ध
कर्तव्यपथ पर
मार्चपास्ट करती लड़कियाँ ध्यान खींचती हैं
उज्ज्वल भविष्य की चमक
स्पष्ट है चेहरे पर
उगते हुए सूरज से अँधेरा छटा हैं झोपड़ियों से
भविष्य की आधी आबादी को लेकर
सरकारें उत्साहित हैं
दीवाल पर लिखे स्लोगन
‘बेटी बचाओ बेटी पढ़ाओ’
को बार -बार पढ़ने की कोशिश कर रहे हैं
निकिता के पिता
सैन्य -वेश में दिख रही एक बेटी का चित्र
बार- बार निहार रहे हैं दुमका में बैठे
अंकिता के पिता
लखीमपुर की घटनाओं का विभत्स दृश्य देख
गश- खाकर गिरे पड़े हैं परिजन
और वे सभी जो करते हैं प्रेम
मानवता से
एक बार फिर दिन के उजाले में
छिपाई जाने लगी हैं लड़कियाँ
झापियों में
घूम रहे हैं हत्यारे खुल्लम- खुल्ला
हाथों में हथियार और सर पर भूत सवार है जिनके
मीडिया और राजनीति का अपना गणित है
और तंत्र की हैं अपनी सीमाएं …
बस दोनों के बीच में पिस रही हैं बेटियाँ…
— मोती प्रसाद साहू