कौशिल्या-भरत संवाद
पास पहुॅंचकर कौशल्या के, भरत ने उन्हें प्रणाम किया
मूक पड़ी कौशल्या ने फिर, कर को उनके थाम लिया
रोदन जल से माॅं ने अपने, फिर बेटे को सींचा
व्यथित हो रहे बेटे को फिर, पकड़ हृदय पर खींचा
भरत बन गए राजा अब तो, मेरा भी इक काम करो
भेजो वन में बेटा मुझको, इतना मुझ पे ऐहसान करो
भाग्यवान थे पिता तुम्हारे, सीधे स्वर्ग सिधार गए
जीत गए थे दुनिया से पर, अपनों से ही हार गए
सौगंध स्वयं की खाता हूं माॅं, गर इसमें मेरा हाथ रहा
कैकेई को भड़काने का ,राई भर भी मेरा काम रहा
तो बल बुद्धि विद्या से अब तो, जीवन भर में हीन रहूॅं
दुनिया के कष्टों को सहते, पड़ा इसी में लीन रहूॅं
भैया शंका करते मुझ पर, यह कष्ट कोई बात नहीं
तेरी नजरों में गिर जाऊंगा, माॅं मुझको यह विश्वास नहीं
चुप रहने को बेटे को फिर, माॅं ने किया इशारा
सहला के उसके बालों को, उसको दिया सहारा
कोई गलती नहीं तुम्हारी, ना ही तेरे माता की।
ऐ सब तो इच्छा थी बेटा, केवल भाग्य विधाता की ।।