बन गया बेरोजगार
जब तलक मन में थी तुम कुवाँरी
याद आती थी हर पल अक्स तुम्हारी
जब से पढ़ लिख कर हो गया बेरोजगार
तेरे संग बसा ना पाया अपना घर बार
पलको में सपने नित्य थे आते
दीदार हो जाती थी गली में जाते
प्यार की होती थी आँखों से इजहार
ये था अपना सच्चा तुमसे प्यार
जब से बेरोजगारी की ले ली डिग्री
खाली है मेरे जीवन की नगरी
ना कोई चहल पहल अब दीखता
घर आँगान भी पराया है लगता
किस खता की सजा मैंने है पाई
मेरी हो रही है जग में जगहॅसाई
समाज से भी हो गई है रूसवाई
किस्मत ने क्या रंग दिखलाई
क्या क्या सपने सजाये थे हमराज
सब ख्वाब बिखर गये हैं। आज
आँखों में नींदिंया ना है आती
बागों की कलियॉ भी ना सुहाती
— उदय किशोर साह