ढलती सांझ!
उम्र नहीं जो मैं ढल जाऊं!
अपनी व्यथा मैं किसे सुनाऊं?
रवि तक पहुंचने वाले कवि भी,
पीड़ा मन की समझ न पाए!
आते ही मुझे ढलने की पदवी
देकर मन-ही-मन मुस्काए!
मेरा बचपन दिखा न उनको,
यौवन भी वो देख न पाए,
मेरे रूप से मोहित वे भी,
फिर भी न जाने क्यों भरमाए!
अंधकार का साथ निभाने,
प्रेम-भाव से मैं आती हूं,
प्रेमी जन को मिलवाने की,
आशा भी मन में लाती हूं.
उजियारे का तोहफा देकर,
ढूंढती मैं कोई और ठिकाना,
क्या इसको ढलना कहते हो!
मुझको तो आना और जाना.
उम्र नहीं जो मैं ढल जाऊं!
अपनी व्यथा मैं किसे सुनाऊं?