कविता

ढलती सांझ!

उम्र नहीं जो मैं ढल जाऊं!
अपनी व्यथा मैं किसे सुनाऊं?

रवि तक पहुंचने वाले कवि भी,
पीड़ा मन की समझ न पाए!
आते ही मुझे ढलने की पदवी
देकर मन-ही-मन मुस्काए!
मेरा बचपन दिखा न उनको,
यौवन भी वो देख न पाए,
मेरे रूप से मोहित वे भी,
फिर भी न जाने क्यों भरमाए!
अंधकार का साथ निभाने,
प्रेम-भाव से मैं आती हूं,
प्रेमी जन को मिलवाने की,
आशा भी मन में लाती हूं.
उजियारे का तोहफा देकर,
ढूंढती मैं कोई और ठिकाना,
क्या इसको ढलना कहते हो!
मुझको तो आना और जाना.

उम्र नहीं जो मैं ढल जाऊं!
अपनी व्यथा मैं किसे सुनाऊं?

*लीला तिवानी

लेखक/रचनाकार: लीला तिवानी। शिक्षा हिंदी में एम.ए., एम.एड.। कई वर्षों से हिंदी अध्यापन के पश्चात रिटायर्ड। दिल्ली राज्य स्तर पर तथा राष्ट्रीय स्तर पर दो शोधपत्र पुरस्कृत। हिंदी-सिंधी भाषा में पुस्तकें प्रकाशित। अनेक पत्र-पत्रिकाओं में नियमित रूप से रचनाएं प्रकाशित होती रहती हैं। लीला तिवानी 57, बैंक अपार्टमेंट्स, प्लॉट नं. 22, सैक्टर- 4 द्वारका, नई दिल्ली पिन कोड- 110078 मोबाइल- +91 98681 25244