हास्य व्यंग्य

त्याग पत्र सौंप दूंगा

निवेदन के साथ निवेदन करता हूँ,
जो मैं कहने जा रहा हूँ
उसे सुनकर हंस मत देना।
अनुरोध ये भी है कि सुनकर
थोड़ा ही सही विचार जरूर कर लेना,
समझ में आ जाये मेरी कविता
तो अपना सिर खुजा लेना
और भूल मानकर अपनी
भूल सुधार का कुछ यत्न भी करना
वरना जो आज तक करते रहे
बस! वही करते रहना।
जीवित गांधी की पीड़ा तो समझ न सके
आजादी का अमृत महोत्सव मनाने में
इतना मगशूल रहे आप सब
कि गांधी जी दर्द अब भी न देख सके।
तो सुनिए! आज मैं बहुत दु:खी हूँ
अपने ही नहीं आप सब की समझ पर
ऊंगलियां भी खुलकर उठाता हूँ।
रात के तीन बजे किसी ने
मेरा दरवाजा खटखटाया,
एक दो बार सुनकर तो मैं खामोश ही रहा
पर खटखटाना जब बंद नहीं हुआ
तो डरते डरते दरवाजा खोला
सामने गांधी जी साक्षात खड़े थे।
मैंने बापू को प्रणाम किया
अंदर लाया, बिस्तर पर बिठाया,
जलपान के लिए पूछा
निष्ठुर भाव से उन्होंने मना कर दिया
फिर मैंने इस तरह आने का कारण पूछा
तो बापू फफककर रो पड़े,
मैंने उन्हें ढांढस बंधाया
उनके आँसू पोंछे और कहा
बापू! आप इतना परेशान क्यों हैं?
आपके इतनी रात्रि मेंं आने का कारण क्या है?
बापू ने वेदना भरे स्वर मेंं कहा
वत्स! तुम बच्चे हो,
मगर दिल के सच्चे हो
तुम भले ही कुछ कर सको या नहीं
मुझे कोई दु:ख नहीं है,
पर मेरी पीड़ा जरूर समझोगे
इतना तो विश्वास है।
देश ने मुझे राष्ट्रपिता कह
बहुत गुमराह कर दिया था,
मैं बड़ा खुश था चलो अच्छा हुआ
देश में राष्ट्र माता का औचित्य
बिना किसी हील हुज्जत के
शायद स्थापित हो जाए
ऐसा कोई राह खुल ही जाए।
पर देख लो नेहरु की कारस्तानी
बिना किसी नियम कानून संविधान के
मैं आज तक बिना राष्ट्रबाबा के
राष्ट्रपिता बनकर रह गया।
आज तक ये किसी ने नहीं सोचा
राष्ट्र को माता की जरूरत भले न हो
मगर राष्ट्रमाता के बिना आखिर
राष्ट्रपिता का औचित्य क्या है?
मैंने अहिंसा का आंदोलन
तुम्हारी राष्ट्रमाता के लिए नहीं किया
शायद ये मेरी भूल थी।
इसका मतलब ये तो नहीं
कि तुम सब मुझे गुमराह करते रहो
आज तक भटक रहा हूँ
इसका भी न ख्याल करो।
अब सहन शक्ति जवाब देने लगी है
मेरी आत्मा धिक्कारने लगी है।
मेरे चारों और प्रश्न घूम रहे हैं
राष्ट्रमाता को लेकर सवाल कर रहे हैं।
वत्स! बस तुम इतना एहसान कर दो
मेरी बात जन जन तक पहुंचाने का
कुछ इंतजाम कर दो
नहीं तो अपनी लेखनी को हथियार बना
कोई कविता ही लिखकर
अखबार, ब्लॉग, बेवसाइट, गूगल
सारे सोशल मीडिया तक पहुंचा दो।
वरना! अब मैं खुद को रोक नहीं पाऊँगा
रामलीला मैदान मेंं अपनों के खिलाफ अनशन बैठ जाऊँगा।
मांग पूरी न होने तक मौन अनशन करता रहूंगा,
जोर जबरदस्ती की कोशिशें तनिक जो हुई,
तो मैं निश्चित ही विद्रोह कर बैठूंगा।
राष्ट्रपिता के पद से मुझे मोह नहीं रहा कभी
नैतिकता के आधार पर उसी समय
अपना त्यागपत्र राष्ट्र को सौंप
मुक्त हो अपनी राह चल दूंगा
राष्ट्रपिता के बोझ से मुक्त हो
चैन की साँस तो ले सकूंगा।

 

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921