गँवाई ज़िंदगी जाकर बचानी चाहिए थी – मुहम्मद आसिफ अली
गँवाई ज़िंदगी जाकर बचानी चाहिए थी बुढ़ापे के लिए मुझको जवानी चाहिए थी समंदर भी यहाँ तूफ़ान से डरता नहीं अब फ़ज़ाओं में सताने को रवानी चाहिए थी नज़ाकत से नज़ाकत को हरा सकते नहीं हैं दिखावट भी दिखावे से दिखानी चाहिए थी बचाना था अगर ख़ुद को ज़माने की जज़ा से ख़ला में ज़िंदगी तुझको बितानी चाहिए थी लगा दो आग हाकिम को जला डालो ज़बाँ से यही आवाज़ पहले ही उठानी चाहिए थी हुकूमत चार दिन की है, अना किस काम की फिर तुझे 'आसिफ़' सख़ावत भी दिखानी चाहिए थी