“दीप जलते रहे”
स्वप्न पलते रहे, रूप छलते रहे।
रोशनी के बिना, दीप जलते रहे।।
अश्रु सूखे हुए, मीत रूठे हुए,
वायदे प्यार के, रोज झूठे हुए,
आज झनकार के तार टूटे हुए,
राख में अधजले दिल सुलगते रहे।
रोशनी के बिना, दीप जलते रहे।।
नभ में निखरी हुई चाँदनी खल गयी,
हारकर वर्तिका, नेह बिन जल गयी,
कारवाँ लुट गया, रात भी ढल गयी,
काल के चक्र जीवन निगलते रहे।
रोशनी के बिना, दीप जलते रहे।।
—
उर के कोटर में अब प्रीत पलती नहीं,
सुख की धारा, धरा से निकलती नहीं,
सीप अब मोतियों को उगलती नहीं,
स्वप्न सारे सवालों में ढलते रहे।
रोशनी के बिना, दीप जलते रहे।।
—
क्या करूँ ये सितारों से पूरित गगन,
क्या करूँ ये सुहाना-सुहाना पवन,
क्या करूँ चाँदनी का अनूठा बदन,
“रूप” अरमान के हाथ मलते रहे।
रोशनी के बिना, दीप जलते रहे।।
— डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’