एक फूल ढूंढ रहा हूं
आंखों के भीतर
आंसुओं के
मूल ढूंढ रहा हूं…!
अनजान में
किया हुआ वो
भूल ढूंढ रहा हूं…!!
खिलने के बाद
सभी सुंदर
लगते हैं चमन में,
खिलकर
खुशबू बिखेर दें वो
एक फूल ढूंढ रहा हूं…!
तुम वो फूल बनकर
खिल रहे हो जैसे
मैं आंधी बनकर
आ रहा हूं जैसे
और मैं…,
फूल का धूल ढूंढ रहा हूं…!!
मैं जलकर राख
बन रहा होता हूं जब
तुम वर्षायाम बनकर
बरस रहे होते हो
ऐसा लगता है…,
जलकर राख ही सही
मैं इश्क़ के अवशेष नूमा
धूल ढूंढ रहा हूं…!
तुम तो ऐसे हो
जैसे तुमको
ना पाकर मैं
स्वयं को स्वयं से
वंचित जैसा
बिना मिट्टी पानी से
संचित जैसा
तुम्हारे हमारे बीच का
टूटा हुआ…,
असूल ढूंढ रहा हूं…!!
हम दोनों के बीच
यह प्रीत कैसा…?
मन मंजिल से दूर
मनमीत कैसा…??
मैं अमावस्या की
अंधेरी रात का
एक टूटा हुआ तारा जैसा ।
और तुम
मेरे लिए
चांदनी रात की
जगमगाता हुआ
चमकता हुआ
चौदहवीं की चांद जैसा ।।
कभी-कभी
सोचता हूं
यूं ही बेमतलब
फिजूल ढूंढ रहा हूं…!
आंखों के भीतर
आंसुओं के
मूल ढूंढ रहा हूं…!!
— मनोज शाह ‘मानस’