बच्चे
सभी बच्चों के हिस्सें में बचपन नहीं होते।
पैदा तो होते है लेकिन हाथों के झूले नहीं होते।
सभी बच्चों के हिस्सें में बचपन नहीं होते।
स्कूल बैग और यूनीफार्म नहीं होते।
सभी बच्चों के हिस्सें में बचपन नहीं होते।
कुछ निकल पड़ते है…
टाट के बोरे लिए कबाड़ बीनने।
क्योंकि उनके हिस्से में ,
जिम्मेदारियां उठाने वाले कंधे नहीं होते।
सभी बच्चों के हिस्सें में बचपन नहीं होते।
कुछ लग जाते है फैक्ट्रियों और ढाबों पर।
कुछ सडक़ों मंदिरों में ,
भीख मांगने निकल जाते है।
कुछ बेचते हैं….. गुब्बारे-खिलौनें।
खेलने की उम्र में जिम्मेदार हो जाते है।
सभी बच्चों के हिस्सें में बचपन नहीं होते।
कुछ छोड़ और फैंक दिये जाते है।
ऐसे बचपन को संजोने वाले नहीं होते।
सभी बच्चों के हिस्सें में बचपन नहीं होते।
तरसती लाचार आंखों में सुनहरे भविष्य के उड़नखटोले नहीं होते।
— प्रीति शर्मा ‘असीम’