शीत
धुंध छाई,लुप्त सूरज,शीत का वातावरण,
आदमी का ठंड का बदला हुआ है आचरण।
रेल धीमी,मंद जीवन,सुस्त हर इक जीव है,
है ढके इंसान को ऊनी लबादा आवरण।
धुंध ने कब्जा किया,सड़कों पे,नापे रास्ते,
ज़िन्दगी कम्बल में लिपटी लड़खड़ाया है चरण।
पास जिनके है रईसी,उनको ना कोई फिकर,
जो पड़े फुटपाथ पर,उनका तो होना है मरण ।
जो ठिठुरते रात सारी राह देखें भोर की,
बैठ सूरज धूप में गर्मी का वे करते वरण।
धुंध ने मजदूरी खा ली,खा लिया है चैन को,
ये कहाँ से आ गया जाड़ा,करे जीवन-क्षरण।
हैं अमीरी में मज़े नित,है नहीं कोई फिकर,
ठंड ने ठंडा किया धंधा,हुआ मुश्किल भरण।।
है हवाओं में प्रबलता,वेग-बल सब ही भरा,
ठंड मारे तीर पैने,बन गई अर्जुन-करण।।
ज़िन्दगी में धुंध है,बाहर भी छाई धुंध है,
ठंड बन रावण करे सुख की सिया का अब हरण।
— प्रो. (डॉ.) शरद नारायण खरे