केन्द्रीय स्वास्थ्य एवं परिवार कल्याण मंत्री के नाम खुला पत्र
आदरणीय मंत्रीजी,
सादर वन्देमातरम्,
करबद्ध प्रार्थना है कि कृपया मेरे इन प्रश्नों का उत्तर देने का अनुग्रह करें
फैमिली फिजिशियन देश में कब लौटेगा: फैमिली फिजिशियन की मृत्यु और जिन्हें पुनर्जीवित करने के बारे में एमसीआई चिन्ता जताकर
2008 से सेमिनार आयोजित करती रही है, परन्तु आज भी देश के नागरिक समुचित शुल्क पर अपनी निष्णात स्वास्थ्य सेवाएं प्रदान
करने वाले फैमिली फिजिशियन की कमी को क्यों तीव्रता से अनुभव करने को विवश है? आखिर क्यों देश के निम्न और मध्यमवर्गीय
रोगी एक विशेषज्ञ से दूसरे विशेषज्ञों के बीच फुटबॉल बनने को विवश है?
नीट, यूजी में अनुपयोगी प्रश्नों से मुक्ति कब: आखिर क्यों स्नातक की प्रवेश परीक्षा [नीट यूजी] में पूछे जाने वाले ऐसे प्रश्नों की भरमार है,
जिनमें से 70% से अधिक की भावी चिकित्सक की प्रैक्टिसिंग अथवा विद्यार्थी जीवन की अध्ययन अवधि में कोई उपयोगिता नहीं है,
जबकि ऐसे हजारों प्रश्न बनाए जा सकते हैं, जिनको अपने स्मृतिकोशों में संचित करने पर विद्यार्थी जानकारियों का गन्दला तालाब नहीं
कल-कल बहता झरना बन सकता है I
ऐसी कैसी शिक्षा-दीक्षा: आखिर ऐसी का विडम्बना है कि एक दसवीं-बारहवीं पास अथवा अनुतीर्ण विद्यार्थी किसी चिकित्सक अथवा
प्राइमरी स्तर के अस्पताल में एक डेढ़ साल सहायक / कम्पाउण्डर / वार्ड बॉय के रूप में कार्य करते हुए, चिकित्सा से जुड़ी अनेक विधाओं
में पारंगत हो जाता है और आसपास की बस्ती में अपना इंडिपेंडेंट क्लिनिक खोल लेता है, परन्तु पूरे साढ़े पांच साल तक तर्शरी स्तर के
मेडिकल कॉलेजों और अस्पतालों में कम से कम 150 अनुभवी, विद्वान और प्रशिक्षण देने के लिए एकनिष्ठता से समर्पित तथा तदर्थ ही
पदस्थ चिकित्सा शिक्षकों और चिकित्सकों के मार्गदर्शन में प्रशिक्षण लेने वाले तथा साढ़े पांच वर्ष में विभिन्न विषयों की कुल 42
सैद्धान्तिक एवं व्यावहारिक परीक्षाओं में [जो लगभग सौ अनुभवी चिकित्सको द्वारा ली जाती है, जिसमें से 28 एक्सपर्ट परीक्षक बाह्य
होते हैं] में उत्तीर्ण होने वाले, तथा संस्थान में कम से कम 75% उपस्थित रहने वाले, अधिकांश विद्यार्थी आखिर क्यों इंजेक्शन लगाने,
घावों का उपचार करने, टांकें लगाने, इंट्रावीनस फ्लूइड देने, प्राथमिक उपचार करने, सामान्य बीमारियों का पूर्ण आत्मविश्वास के साथ
आत्मनिर्भरता के साथ उपचार करने में स्वयं को अक्षम पाते हैं?? हम साढ़े पांच सालों में भी अपने उन प्रतिभासम्पन्न विद्यार्थियों को
देश की बीस-पच्चीस सामान्य बीमारियों के रोगियों को आत्मविश्वास के साथ हैंडल करने योग्य क्यों नहीं बना पाते हैं? आखिर क्यों
अधिकाँश संवेदनशील चिकित्सा शिक्षकों की यह अन्तर्वेदना है कि “यह साढ़े पांच वर्ष की अत्यन्त कठिन साधना, उन्हें मात्र नीट प्रीपीजी
देने की अहर्ता ही दे पाती है I” जबकि मेडिकल विद्यार्थी चिकित्सक बनने की उत्कट इच्छा लिए मेडिकल कॉलेजों में कठिन प्रतिस्पर्धा के
बाद प्रवेश पाते हैं?
आउट डेटेड से इतना लगाव क्यों : आखिर ऐसी क्या विवशता है कि देश भर के लाखों प्रतिभाशाली प्रथम वर्ष के विद्यार्थियों के करोड़ों
मूल्यवान घण्टों को, उन विधाओं को सिखाने में नष्ट कर दिया जाता है, जिनका उपयोग वर्तमान में किसी भी पिछड़े देश में भी नहीं
किया जाता है, यहाँ तक कि जब वे सेकेण्ड इयर में अस्पतालों में पोस्टिंग पर जाते हैं, तो वहां नूतन विधाओं से जांचें होते देखते हैं और
उन्हें दुःख होता है कि इन नूतन विधाओं और उपकरणों की कार्यप्रणाली के बारे में वे पूरी तरह अनभिज्ञ हैं I आखिर हर साल न सही
पांच वर्ष में दिवाली की सफाई की अवधारणा मेडिकल साइंस जैसी नागरिकों के जीवन से जुड़ी शिक्षा में क्यों नहीं है? क्यों हम उन्हें
नित नवीन आविष्कारों से वंचित रखना चाहते हैं? कृपा करके चिकित्सा शिक्षा के पाठ्यक्रम को “स्टेटस को” के सशक्त नागपाश से हाथ
पकड़कर 1950 के आभामंडल से बरबस खींच कर इक्कीसवीं सदी में लाने का सफल प्रयास कीजिए I
अध्यात्म और स्वास्थ्य की उपेक्षा क्यों: ब्रिटेन और अमेरिका के लगभग 60% मेडिकल स्कूलों में आध्यात्म और स्वास्थ्य विषय पर ज्ञान
दिया जाता है, परन्तु भारत जैसा आध्यात्मिक देश उनसे वंचित क्यों है? प्रार्थना की उपचारक वैज्ञानिकता पर नोबेल विजेता फ्रेंच सर्जन डॉ.एलेक्सिस कैरेल ने दो पुस्तकें लिख डाली हैं, प्रेयर और मैन द अननोन I जेफरसन यूनिवर्सिटी हॉस्पिटल के फिजिशियन डॉ.एंड्रयू
न्यूबर्ग, (Dr Andrew Newberg) एमडी, ने “हाउ गॉड चेंजेज योर ब्रेन” पुस्तक लिख डाली है I
भारतीय ज्ञान-विज्ञान परम्पराओं को विदेशों ने अंगीकार किया, भारत कब करेगा: में वेदों में वर्णित आश्वासन चिकित्सा, मन्त्र
चिकित्सा, स्पर्श चिकित्सा, श्वसन चिकित्सा, वायु अथवा वन स्नान चिकित्सा आदि और भी अनेक चिकित्साओं का शोध आधारित
उपयोग विदेशों में रोगियों के उपचार के लिए डंके की चोट किया जा रहा है और भारत में आज भी चिकित्सक और चिकित्सा विद्यार्थी
उन्हें अविश्वास की दृष्टि से देखते हैं और मेडिकल कॉलेजों में उनके बारे में रत्तीभर भी जानकारियां नहीं दी जाती है, जबकि उनके
व्यावहारिक उपयोग से रोगियों की रिकवरी की स्पीड आश्चर्यजनक ढंग से बढ़ सकती है, जो भारत जैसे निर्धन-बहुल देश के लिए बहुत
बड़ा सम्बल सिद्ध हो सकती हैं I आयुर्वेदवर्णित दिनचर्या पर विदेशों में सौ से अधिक शोध हो चुके हैं, हमारे यहाँ सन्नाटा क्यों है?
सामूहिक अनुपस्थिति आखिर क्यों नीति नियन्ताओं को व्यथित नहीं करती है; जो विद्यार्थी मेडिकल में प्रवेश के पूर्व तक नॉन मेडिको
शिक्षकों की कोचिंग क्लासेस में एक दिन का भी बंक [एब्सेंस] नहीं मारते हैं, आखिर वे मेडिकल कॉलेजों में प्रवेश के बाद क्यों अनेक
सप्ताहों की सामूहिक अनुपस्थिति का प्रसन्नता के साथ वरण करते हैं? इस विषय में समाचार अखबारों की सुर्खियाँ बन जाते हैं, परन्तु
कई दशकों का सत्य है कि सामूहिक अनुपस्थितिने उन्हें तनिक भी प्रभावित नहीं किया, जिन्हें गहन चिन्ता करना चाहिए थी I आखिर
निष्णात, अनुभवी, वरिष्ठ और ख्यात चिकित्सा शिक्षकों की अध्यापन शैली उन्हें क्यों विकर्षित करती है, यह मेरी चिन्ता का विषय रहा
है? आखिर क्यों का उत्तर तो मुखिया होने के नाते आपको ही देना होगा I
क्या ढाई सौ विद्यार्थियों के एक साथ अध्यापन-प्रशिक्षण सम्भव है: मैं अपने 45 वर्षीय मेडिकल कॉलेज के अनुभव के आधार पर सत्य
कथन करता हूँ कि यह असम्भव है I गुणवत्ता से समझौता क्यों किया जा रहा है? ज्ञान लेने और देने वाले विद्यार्थियों और शिक्षकों से
पूछ कर देखिए I जिन मेडिकल कॉलेजों में दशकों पूर्व 250 सीटें थी, वहां सवा-सवा सौ दो की बैचेज में पढ़ाने का चलन रहा है I
चिकित्सा शिक्षा जीवन से जुड़ा विज्ञान है, गुणवत्ता में समझौते के दुष्परिणाम देश को भोगना पड़ेंगे I
शिक्षकों और विद्यार्थियों की उपेक्षा के क्या निहितार्थ हैं: एमसीआई/ एनएमसी के निरीक्षणों में सब देखा जाता है, बस शिक्षकों और
विद्यार्थियों की घोर उपेक्षा होती है, दर्जनों निरीक्षणों का साक्षी हूँ, न कभी विद्यार्थियों से बात की गई और न ही शिक्षकों से, क्या ऐसा
करके चिकित्सा शिक्षा की गुणवत्ता को श्रेष्ठ रखा जा सकता है? अध्यापन की गुणवत्ता के लिए विद्यार्थियों से गोपनीय तरीकों से
फीडबैक क्यों नहीं लिया जाता है?
डिजिटल शोध प्रबन्ध और प्रोजेक्ट क्यों नहीं: मेडिकल कॉलेजों और एम्स जैसे संस्थानों में पर्यावरण संरक्षण की दृष्टि से डिजिटल शोध
प्रबन्ध और डिजिटल प्रोजेक्ट को क्यों लागू नहीं किया गया है, जबकि पूर्व केन्द्रीय स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्द्धनजी की सहमति थी I
माननीय महोदय, भारतीय की औसत आयु 80 वर्ष मान लें तो मैं अपने जीवन के 68 वें वर्ष में आपसे यही निवेदन करता हूँ कि
मेरी खातिर न सही देश के नागरिकों के जीवन की खातिर, वैश्विक चिकित्सा विज्ञान के साथ-साथ कदमताल करने की दृष्टि से और
चिकित्सा विद्यार्थियों की उत्कृष्ट प्रतिभा के सम्मान में ही सही, कृपा करके उक्त प्रश्नों का उत्तर प्राप्त करने के लिए अपने विश्वस्त
व्यक्तियों को दायित्व देने का अनुग्रह करें I
आपका और अधिक मूल्यवान समय नहीं लेते हुए मैं आपके संज्ञान में यह बात लाना चाहता हूँ कि 1998 से निरन्तर उक्त
अथवा अन्य विषयों पर एमसीआई को लिखता रहा हूँ, मेरे लेख प्रकाशित हुए हैं, मैंने 2003 और 2017 में मेडिकल कॉलेज, इन्दौर तथा
फरवरी 2012 में मेडिकल कॉलेज, जबलपुर में स्टूडेंट्स और टीचर्स के लिए चिकित्सा शिक्षा में बदलाव पर प्रतिस्पर्धात्मक सुझाव भी
आमंत्रित किए थे I इसके अतिरिक्त एनएमसी के बिल 2016 में “रिक्वेस्ट फॉर चेंज इन एमबीबीएस करिकुलम” के शीर्षक से मेरे नाम का
उल्लेख है I चिकित्सा पाठ्यक्रम में विभिन्न स्तरों पर बदलाव हेतु 04.07.2021 को प्रेषित मेरे तीन पृष्ठ के कवरिंग पत्र सहित 28 पृष्ठों
के मेरे सुझावों को 06.08.2021 को नीति आयोग के उपाध्यक्ष महोदय ने “डीम्ड एप्रोप्रियेट” की टिप्पणी के साथ एनएमसी के सचिव को
जस का तस प्रेषित करवाया था I दुखद यह है कि जब 31 जनवरी 2022 को मैंने आरटीआई लगाई तो चार माह बाद एनएमसी की
दायित्वहीन टिप्पणी युक्त पत्र मिला कि ऐसा कोई पत्र उन्हें नहीं मिला है, जबकि जिस ईमेल से मुझे भेजा था, उसी से कॉपी के रूप में
एनएमसी के सेक्रेटरी को भेजा गया था I
आशा है, आप इसका गम्भीरता से संज्ञान लेंगे I
दिनांक: 29.12.2022
विनीत
सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,
मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।