ग़ज़ल
बंजर में फिर फूल उगाने की सोचें ।
आओ फिर से नीड़ बनाने की सोचें ।।
पिंजरों में हैं बंद जो सदियों से पंछी ।
करके उन्हें आजाद उड़ाने की सोचें ।।
मलिन बस्तियों में जो बचपन रोता है ।
उन्हें किताबों से बहलाने की सोचें ।।
दुनिया में हो हर सू खेती फूलों की ।
अपने घर के संग जमाने की सोचें ।।
साथ खड़े थे जो अपने हर सुख दुख में ।
उनको अपने दर्द सुनाने की सोचें ।।
इस दुनिया में आना आना हो जाए ।
फिर कोई मजलूम हंसाने की सोचें ।।
पलकों में जो पलते नाजुक सपने हैं ।
उन्हें हकीकत में भी पाने की सोचें ।।
फैंक के गठरी सारी दुश्चिंताओं की ।
फिर से महफिल में मुस्काने की सोचें ।।
उन्हें बुला लें जो ख्वाबों में बसते हैं ।
फिर महफिल रंगीन बनाने की सोचें ।।
पहले जो हैं रिश्ते उन्हें निभा तो लें ।
उसके बाद ही और बनाने की सोचें ।।
— अशोक दर्द