शीर्षक: विंडो वाली सीट
बात उस समय की है जब मैं कक्षा नवीं दसवीं की छात्रा रही होंगी। मेरे मामा जी रोहतक हरियाणा में रहते थे। मई-जून की गर्मियों की छुट्टियों में हम अक्सर सपरिवार उनके पास उनके घर रहने जाया करते थे। मामा जी के घर जाने से कहीं ज्यादा उत्सुकता और खुशी हमें ट्रेन में बैठने की होती थी। गर्मी की छुट्टियां शुरू होते ही हमें इंतजार होता था कि कब हमें ट्रेन में बैठने का मौका मिलेगा। उस पल के इंतजार में हम सभी भाई-बहन न जाने मन ही मन अपनी अपनी कितनी ही योजनाएं बना रहे होते थे कि ट्रेन में कौन कहां बैठेगा ,सफर में हम कौन-कौन सी चीजें खाएंगे तथा कौन कौन सी कॉमिक्स पढ़ेंगे। 3 घंटे के दिल्ली से रोहतक के उस सफ़र की वे सुखद यादें आज तक मेरे ज़हन में यूं की यूं बसी हुई हैं।
जैसे ही हम स्टेशन पर आए उसके 15 मिनट के भीतर ही हमारी ट्रेन आ गई और पापा जी ने हमें तुरंत ट्रेन में चढ़ने और निर्धारित सीट पर बैठने के लिए बोला ।हम तुरंत ट्रेन में चढ़े और भागकर टिकट पर लिखी हुई सीट ढूंढने लगे।
अब तक हम सभी अपनी अपनी सीट पर बैठ चुके थे ।जैसे ही ट्रेन चली मेरे दोनों छोटे भाइयों और मैंने मम्मी से ज़िद की कि हमें विंडो वाली सीट पर बैठना है।पर विंडो सीट एक ,और ज़िद करने वाले तीन। बेचारी मम्मी भी हम तीनों के झगड़े सुलझाते सुलझाते जब परेशान हो गई तो मम्मी ने हम तीनों बच्चों के नाम की पर्चियां डालने के लिए कहा और जिसके नाम की पर्ची आएगी वही विंडो सीट पर बैठेगा कहकर अपने पर्स से एक पेपर निकाला और हम तीनों के नाम की पर्चियां बनाकर पापा जी को एक पर्ची उठाने के लिए कहा। मेरी किस्मत का सितारा शायद उस वक्त बुलंद था कि मेरे ही नाम की पर्ची आई। अपने नाम की पर्ची आने पर मेरी खुशी का पारावार ना रहा, मुझे ऐसा महसूस हुआ जैसे मैंने कोई किला फतह कर लिया हो। मेरे दोनों भाई भी चुपचाप अपनी अपनी सीट पर बैठ गए और खुशी खुशी मुझे विंडो सीट पर बैठने के लिए इशारा किया।
अपनी उस छोटी सी जीत जो उस वक्त मुझे बहुत बड़ी लगी थी ,पर मैं बहुत खुश थी और जैसे ही मैं विंडो सीट पर बैठने लगी तभी मुझे एक छोटी बच्ची की रोने की आवाज सुनाई पड़ी जो लगातार रोए जा रही थी। हम सबका ध्यान यकायक उसी बच्ची की तरफ गया ।उसके माता पिता उसे गोद में लेकर ट्रेन में इधर-उधर घुमा रहे थे और उसे चुप करने की हर संभव कोशिश कर रहे थे। परंतु बच्ची किसी भी तरह से चुप नहीं हो रही थी।
पापा जी के पूछने पर बच्ची के पिता ने बताया कि बच्ची विंडो सीट पर बैठने की जिद कर रही है परंतु उनके पास विंडो वाली सीट की टिकट ही नहीं है इसलिए वे बच्ची को चुप करने के लिए ट्रेन में ही इधर-उधर घुमा रहे हैं। पापा जी ने बच्ची के हाथ में एक चॉकलेट थमाई और चुप होने के लिए कहा परंतु बच्ची ने न तो चॉकलेट ही पकड़ी और न ही चुप हुई। वह अभी भी रो रही थी। 4 से 5मिनट के पश्चात पापा मम्मी अपने अपने मोबाइल में व्यस्त हो गए और मेरे दोनों भाई कॉमिक्स पढ़ने लगे। परंतु, मैं अभी भी उस रोती हुई बच्ची को ही देखे जा रही थी ।मुझसे उसका इस प्रकार बिलख बिलख कर रोना नहीं देखा जा रहा था।
जब उसका रोना बंद ही नहीं हुआ तो मैं अपनी सीट से खड़ी हुई और उस बच्ची के पिता जी से निवेदन किया कि वे अपनी बच्ची को मेरी अर्थात विंडो वाली सीट पर बिठा सकते हैं। मेरी इस बात पर मेरे दोनों भाई हैरान हुए और बड़े ही आश्चर्य से मेरी तरफ देखने लगे ।बिल्कुल यही हाल मेरे पापा जी और मम्मी का था ।जो लड़की कुछ देर पहले तक जिस विंडो सीट पर बैठने के लिए अपने भाइयों से ज़िद कर रही थी ,वह अपनी ही खुशी से किसी दूसरे बच्चे के लिए वही सीट छोड़ने के लिए तैयार हो गई। खैर, बच्ची के पिता जी बहुत खुश हुए और मुझे धन्यवाद बोलते हुए अपनी बच्ची को लेकर विंडो वाली सीट पर बैठ गए। बच्ची बहुत खुश हुई और चुप भी हो गई ।वह बाहर के नज़ारे देखकर अति प्रसन्न हो रही थी।वह अब अपने पिताजी की गोद से बाहर निकलने की कोशिश कर रही थी क्योंकि वह बाहर के दृश्यों को देखकर अति उत्साहित हो रही थी।
उसको हंसता हुआ देखकर मुझे भी बहुत खुशी हो रही थी ।कुछ ही देर बाद बच्ची थककर अपने पिताजी की गोद में सो गई और कुछ ही देर में वे अपनी बेटी सहित अपनी सीट पर जाकर बैठ गए ।
उनके जाने के बाद मेरी मम्मी ने मुझसे पूछा कि “आखिर ऐसा क्या हुआ था बेटा जो तुमने अपनी पसंद की सीट को अपनी ही मर्जी से किसी दूसरे को दे दिया। क्या तुम्हें इस बात का दुख नहीं हुआ कि तुमसे तुम्हारी प्यारी सीट छिन गई।”
मम्मी के उस सवाल के उत्तर में मैंने मम्मी को बस यही जवाब दिया, ” मम्मी ,पापा जी और आपने ही तो हमें सिखाया है कि किसी दूसरे की खुशी में हमें अपनी खुशी ढूंढने का प्रयास करना चाहिए और यदि हम किसी और के चेहरे पर थोड़ी भी मुस्कान ला सकें तो हमें वह अवसर अपने हाथ से नहीं जाने देना चाहिए क्योंकि ईश्वर ऐसे अवसर उन्हीं लोगों को देता है जो वास्तव में दूसरों के जीवन में खुशियां भर सकते हैं ।मुझे लगा कि शायद मैं भी वही शख्स हूं जिसे ईश्वर ने ढेर सारी खुशियां सौंपी हैं और जिनमें से चुनिंदा मैं दूसरों में भी बांट सकती हूं। बस यही सोच कर मैंने अपनी खुशी से अधिक महत्त्व उस बच्ची की खुशी को दिया और यकीन मानिए उस बच्ची के चेहरे की खुशी देखकर मुझे विंडो वाली सीट पर बैठकर मिलने वाली खुशी से अधिक खुशी हुई और खुशी से भी कहीं अधिक सुख और संतोष का अनुभव भी हुआ।”
मेरी यह बात सुनकर मेरे दोनों भाई और मम्मी बहुत खुश हुए ।पापा जी ने तब गर्व से अपना सिर ऊँचा उठाते हुए मम्मी से कहा – “देखो रमा,वास्तव में ये होते हैं संस्कार।”
— पिंकी सिंघल