फूलों की क्यारी
फूलों की क्यारी कभी-कभी
बंजर सी नजर आती है।
वो काली निशा,चाँद बिना
विधवा सी नजर आती है।
जग की जननी,मातृत्व बिना
बांझ भी कहलाती है।
वंशवाद पर जब प्रश्न उठे
अंगुली औरत पर ही उठ जाती है
मन ही मन तरसे धीर को
जाने कैसे पीर को सह जाती है
बिन कारण जाने दोष लग जाए
वो चुप्पी से सह जाती है
इस बेल पर कभी बसंत ना आए
दुनियाँ की बोली शूल सी चुभ जाती है।
खाली दमन हो गर औरत का
तो ज़िंदगी तानो मे कट जाती है
दिन बीतते है न कटती हैं राते
आँखे बिन सावन के बरस जाती हैं
क्योँ “मर्द” बांझ नहीं होता कभी .
क्यों? औरत बांझ हो जाती है।
— सरिता प्रजापति