अर्न्तद्वंद
अर्न्तद्वंद की पीड़ा से हूँ मैं घायल
किसको बनाऊँ अपराध की कायल
मन में छिड़ी है कसमकस की जंग
में खुद को खुद से हो गया हूँ तंग
कभी अन्तरात्मा हमें भटकाता है
कभी मन को भ्रमित कर जाता है
अब तुम ही बताओ ओ रब हमको
कैसे लड़ूं मैं खुद से खुद की जंग को
समझाने हमको कोई नहीं है आता
उचित अनुचित का भाव ना बतलाता
मेरी बुद्धि गई है अब आज मारी
बढ़ रही है इस युद्ध की हमको बीमारी
क्या अच्छा क्या बुरा समझ नहीं आता
बात बात में मन है खुद पे गुस्साता
किसने जलाई अज्ञान की आग
जो कर रहा है मेरे अर्न्तमन को बरबाद
मुझे इस बेकल दलदल से तुम निकालो
अच्छे बुरे की परिभाषा हमें दे डालो
मैं शांति का हूँ एक परम पुजारी
किसने दी है मेरी मति को है मारी
— उदय किशोर साह