ग़ज़ल
हो रहा हूँ आज पागल, ये नजारे देखकर।
रो पड़ी सूखी नदी दोनों किनारे देखकर
मर चुका था क्या पता, कितने दिनों पहले मगर,
हो गया जिन्दा मुक़द्दर के सितारे देखकर।
खेलने को खेल सकते, थे खिलाड़ी और भी,
सैकड़ों खुश थे मगर, जलवे हमारे देखकर।
“हाँ” न की पर मुस्कराने की अदा “ना” में न थी,
इसलिए मैं आ गया, नखरे तुम्हारे देखकर।
हाथ में पत्थर लिए, दो चार आए थे इधर,
भागती आई पुलिस, शैतान सारे देखकर।
दूर होती है उदासी, तोतली आवाज से,
और हो जाती चिकित्सा, कुछ दुलारे देखकर।
“प्राण” महफ़िल में रहेंगे, तब तलक हम हैं यहाँ,
बाद में क्या कौन समझेगा इशारे देखकर।
— गिरेन्द्रसिंह भदौरिया “प्राण”