कविता

गर्मी और पक्षी

 

एक बार फिर गर्मी कहर ढाने लगी है

हम पक्षियों को रुलाने लगी है,

दुनिया आधुनिकता के रंग में रंगी जा रही है

पेड़ पौधे जंगल कम होते जा रहे हैं

कच्चे घर, छप्पर के झोपड़े इतिहास बनते जा रहे हैं

झाड़ी झंखाड़ भी साफ होते जा रहे हैं

हमारे हर सुरक्षित ठिकाने

आधुनिकता की भेंट चढ़ते जा रहे हैं।

आज हमारे भी ठिकाने बड़ी कठिन वातावरण में हैं

भीषण गर्मी में हम भी झुलस रहे हैं,

भगवान भरोसे ही हमारे बच्चे जन्म लेकर पल रहे हैं।

ताल, तलैया,नदी नालों पर अतिक्रमण बढ़ रहे हैं

हम पक्षियों के लिए मौत के अदृश्य जाल

लगातार फैलते जा रहे हैं,

दो घूंट पानी के लिए धूप में हम झुलस रहे हैं।

अपवाद स्वरूप ही कुछ लोग हमारे लिए

अपने दरवाजे या छतों पर पानी रख रहे हैं

ऊंची ऊंची अट्टालिकाओं पर वो भी नजर नहीं आते

राम भरोसे ही हम भटकते रहते और जीते

सौभाग्य से ही अपनी प्यास बुझा पाते।

हमारे रहने के ठिकाने,खाने पीने की

प्राकृतिक व्यवस्था पर इंसानी प्रहार हो रहे हैं।

हमारे बंधु बांधवों की कई प्रजातियां लुप्त हो गई हैं,

कुछ विलुप्त होने की कगार पर हैं

हम जो बचे हैं बस किसी तरह जी रहे हैं

कल सुबह भी हम चहचहा सकेंगे

यह हमें ही यकीन नहीं है ।

पर दोष किसका दें? हमारी किस्मत ही ऐसी है

इंसान को जब खुद की फ़िक्र नहीं है

तब हमारे बारे में वो सोचेगा ये नामुमकिन है।

अब तो गर्मी हमारे प्राण लेने आती है

जो इस गर्मी में सौभाग्य से बच जाते हैं

फिर उन्हें अगली गर्मी रुलाती है,

हमारे परिवार के लोगों की मौत

गर्मी में कुछ ज्यादा ही होती है,

ये गर्मी हमारे लिए किसी डायन से कम नहीं है।

 

*सुधीर श्रीवास्तव

शिवनगर, इमिलिया गुरूदयाल, बड़गाँव, गोण्डा, उ.प्र.,271002 व्हाट्सएप मो.-8115285921