“मौसम की विपरीत चाल है”
गीत “मौसम की विपरीत चाल है”
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कैसे मैं दो शब्द लिखूँ और कैसे उनमें भाव भरूँ?
तन-मन के रिसते छालों के, कैसे अब मैं घाव भरूँ?
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मौसम की विपरीत चाल है,
धरा रक्त से हुई लाल है,
दस्तक देता कुटिल काल है,
प्रजा तन्त्र का बुरा हाल है,
बौने सम्बन्धों में कैसे, लाड़-प्यार और चाव भरूँ?
तन-मन के रिसते छालों के, कैसे अब मैं घाव भरूँ?
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तन देशी है भेष विदेशी,
सन्तों के उपदेश विदेशी,
तौर-तरीके हुए विदेशी,
देशी गाने साज विदेशी,
पश्चिम की इस नयी पौध में, कैसे सेवा-भाव भरूँ?
तन-मन के रिसते छालों के, कैसे अब मैं घाव भरूँ?
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पंछी को परवाज चाहिए,
बेकारों को काज चाहिए,
नेता जी को राज चाहिए,
कल को सुधरा आज चाहिए,
उलझे ताने और बाने में, कैसे सरल स्वभाव भरूँ?
तन-मन के रिसते छालों के, कैसे अब मैं घाव भरूँ?
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पहले जैसा देश नहीं है,
वेदों के सन्देश नहीं है,
उज्ज्वल अब परिवेश नहीं है,
महिलाओं के केश नहीं हैं,
सूखी सरिताओं में कैसे, जल का प्रबल प्रवाह भरूँ?
तन-मन के रिसते छालों के, कैसे अब मैं घाव भरूँ?
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भाँग कूप में पड़ी हुई है,
लाज धूप में खड़ी हुई है,
आज सत्यता डरी हुई है,
तोंद झूठ की बढ़ी हुई है,
रेतीले रजकण में कैसे, शक्कर के अनुभाव भरूँ?
तन-मन के रिसते छालों के, कैसे अब मैं घाव भरूँ?
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(डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री ‘मयंक’)