बंदिशें
बंदिशें
“बेटा, आज ये क्या पहन लिया है तुमने ? सफेद साड़ी, सफेद ब्लाऊज, सूनी कलाइयां…?”
“तो क्या हुआ मम्मी ? आप भी तो रोज ऐसे ही कपड़े पहनती हैं ? आज मैंने पहन लिया तो आपको आश्चर्य क्यों हो रहा है ?”
“बेटा मेरी बात अलग है ? मैं एक विधवा हूं । मैंने हमेशा के लिए अपना पति खो दिया है ।”
“मैंने भी तो अपने पिता को हमेशा के लिए खो दिया है मम्मी ।”
“देखो बेटा, तुम्हारी बात भी सही है, पर हमारे समाज में… लोगों ने विधवाओं के लिए कुछ बंदिशें… जाओ बेटा तुम, जल्दी से कपड़े चेंज कर के आ जाओ । तुम्हें ऐसे देखकर मेरा कलेजा फटा जा रहा है ?”
“मम्मी, बंदिशें सिर्फ विधवाओं के लिए ही क्यों ? विधुरों के लिए क्यों नहीं ? बुआ जी के मरने के बाद फूफा जी के रहन-सहन में कुछ फर्क पड़ा ? नहीं न । बल्कि उन्होंने तो सालभर बाद ही दूसरी शादी भी कर ली । खैर… छोड़िए उनकी बात। मम्मी, आपको सफेद साड़ी में देखकर मेरा भी कलेजा फटा जाता है । आप किन लोगों की और किस समाज की बात कर रही हैं ? पापा के जाने के बाद समाज के किसी ने भी झांक कर देखा है कि हम कैसे हैं ? नहीं ना । तो हम क्यों परवाह करें उनकी या क्यों मानें ऐसी बंदिशें ? सॉरी मां, पर आज मैं आपकी बात नहीं मानूंगी ।”
“….”
“मम्मी, मैंने ठान लिया है कि जब तक आप सफेद कपड़े पहनना बंद नहीं करेंगी, तब तक मैं भी सफेद कपड़े पहनना बंद नहीं करूंगी । जो होना था, वह तो हो चुका । अब आगे की पहाड़-सी जिंदगी हमें पापा के बिना ही बितानी है ।”
अंततः बेटी की जिद के आगे मां को झुकना ही पड़ा ।
-डॉ. प्रदीप कुमार शर्मा
रायपुर, छत्तीसगढ़