गौरैया क्या वाकई विलुप्ति की और है
गौरेया इंसानों के साथ रहने वाला पक्षी वर्तमान में विलुप्ति की कगार पर जा पहुंचा है। ये छोटे -छोटे कीड़ों को खाकर प्रकृति का संतुलन बनाए रखने में सहायक है। गोरैया के कम होने का कारण विकिरण का प्रभाव तो है ही इसके अलावा उनकी ओर इंसानों का ध्यान कम देना रहा। पाठ्यक्रमों में दादी -नानी की सुनाई जाने वाली कहानियों में और फ़िल्मी गीतों,लोक गीतों ,चित्रकारी आदि में गोरैया का जिक्र सदैव होता आया है। घरों में फुदकने वाला नन्हा पक्षी प्रकृति के उतार – चढाव को पूर्व आकलन कर संकेत देता आया है। सुबह होने के पूर्व चहकना ,बारिश आने के संकेत -धूल में लौटना ,छोटे बच्चे जो बोलने में हकलाते है-उनके मुहँ के सामने गोरैया को रखकर हकलाने को दूर करना हालांकि ये टोटका ही माना जायेगा। चित्रकारी में तो सबसे पहले बच्चों को चिड़िया (गोरैया )बनाना सिखाया जाता है। कहने का तात्पर्य ये है की गोरैया इंसानों की सदैव मित्र रही और घर की सदस्य भी। क्यों ना हम गोरैया के लिएव अन्य पक्षियों के लिए,पानी ,दाना की व्यवस्था कर पुण्य कमाए। एक बार इसको आजमा के देखों मन को कितना सुकून मिलता है। इन्ही कुछ आसान उपायों से फिर से घरों में फुदक सकती है हमसब की प्यारी गोरैया। कई किसान अपने खेत के कुछ हिस्सों में ज्वार,बाजरा भी लगाते है उनका उद्देश्य गौरैया के प्रति दाना प्रदान करना रहता है। गौरेय्या की सेवा से मन को सुकून मिलता है। दाना पानी और रहवास की सुविधा करने पर फिर से घरों में फुदक सकती है। हम सब की प्यारी गौरेय्या। पक्षियों में अद्धभुत शक्ति होती है,भूगर्भीय हलचलों जैसे हादसों से सचेत कर देते है। साथ ही मालिक के प्रति वफ़ादारी भी निभाते है। जरुरी नहीं कि उन्हें कैद करके रखा जाए। पक्षियों के लिए दाना पानी सकोरे में रखे। क्योकि पृथ्वी रहने का जितना अधिकार इंसानों का है उतना अधिकार पक्षियों का भी है।
एक वाक्या याद आरहा वो यूँ था। जब मै छोटा था तो माँ से एक सवाल गर्मी के मौसम मे पूछा करता था। माँ.. गौरेया इतनी उचे छज्जे मे रह रहे उनकी छोटे -छोटे चूजो को इतनी भीषण गर्मी मे पानी कैसे पिलाती होगी? क्या उन्हे प्यास नहीं लगती होगी। आप हमे तो जरा-जरा सी देर मे प्यास लगाने पर पानी पिला देती हो। माँ ने कहा- हर माँ को छोटे बच्चों का ख्याल रखना होता है। तू बडा होगा तब समझ में सब बाते मेरी कही याद आएगी। समय बीतने पर माँ ने सिलाई कर कर के खाने मे खिचड़ी तो कभी पोहे बनाकर पेट की भूख को तृप्त कर देती। माँ से पूछने पर माँ आप ने खाना खा लिया की नहीं। माँ भले ही भूखी हो वो झूंठ -मूंठ कह देती- हाँ खा लिया। वो मेरी तृप्ति की डकार से खुश हो जाती। मुझे नजर ना लगे इसलिये अपनी आँखों का काजल उतार कर मेरे माथे पर टिका लगा देती। माँ की गोद मे सर रख कर सोता और माँ का कहानी -किस्से सुनाकर नींद लाना तो जैसे रोज की परम्परा सी हो। माँ ने गरीबी का अहसास नहीं होने दिया। बल्कि मेहनत का हौसला मेरे मे भी भरती गई। आज मै बडे पद पर नौकरी कर रहा हूँ। माँ के लिये हर सुख -सुविधा विद्दमान है और जब भी मै बड़ा दिखने की होड़ माँ से बड़ी -बड़ी बातें करता हूँ तो माँ मुस्कुरा देती है। जब किसी चीज मे कुछ कमी होती है तो व्यर्थ मे ही चिक चिक करने लगता हूँ। शायद दिखावे के सूरज को पकडने में मेरी ठाटदारी के जैसे पंख जलने लगे हो और मै पकड़ नहीं पाता इसलिये मन मे चिडचिडापन उत्पन्न हो जाता है। माँ कहती है कि गरीबी मे ही कितना सुकून रहता था। गरीब की किसी गरीब से प्रतिस्पर्धा नहीं होती थी। दायरे सिमित थे किन्तु आकांक्षा जीवित थी वो भी माँ के मेहनत के फल के आधार पर। हौसला रखना मेरी आदर्श माँ ने सिखलाया इसलिए माँ मेरी आदर्श है। माँ की छत्र -छायामे सुख शांति पाता हूँ शायद ये ही मेरी माँ के प्रति पूजा भी है जो कठिन परीस्थितियों मे समय की पहचान एवं हौसलो से जीना सिखाती है जैसे गोरैया अपने बच्चों को उड़ना सिखाती है। अब अच्छी तरह समझ गया हूँ कि माँ का मातृत्व बच्चों के प्रति क्या होता है।
— संजय वर्मा ‘दृष्टि’