कविता
नारी हूँ मैं सिर्फ यही चिंता तो समाज को है,
कौन जानता है दुख मेरा,
सबको मतलब सिर्फ मेरे नकाब से है
यूँ तो भ्रम हूँ मैं खुद के लिए भी,
पहचान मेरी मेरे शबाब से है।
संवरने के अंदाज से भी
जहाँ दूसरों को रश्क होता है,
मेरी पहचान भी उसी समाज से है।
खाली बोतल के जैसे होती है जिंदगी,
भरी है क्यों वो पूरी ऐतराज इसी सवाल से है।
पँखे के मानिंद सिर्फ घूमती ही रहे,
ठहराव से वजूद बिखरा सा है।
हाँ मैं नारायणी भी हूँ और काली भी,
लक्ष्मी भी हूँ और दुर्गा भी,
कोमल भी हूँ और शक्तिशाली भी।
कायर भी हूँ और थोड़ी हिमाकत वाली भी,
समाज की विद्रूपता की तस्वीर भी,
इंसानियत की सच्ची मिसाल भी।
दाग मत लगाओ स्वच्छ सफेद चादर पर,
आज भी कहती हूँ मैं
तुम्हारी पहचान भी सिर्फ मुझसे है।
तुम्हारी शिकायत भी सिर्फ मुझसे ही है।
— वर्षा वार्ष्णेय अलीगढ़