हास्य व्यंग्य

कुर्सी-महिमा

कुर्सी का झगड़ा भारतवर्ष का सांस्कृतिक उत्सव है। आप इसे संस्कार भी कह सकते हैं। जो कुर्सी मोहनलाल चाहता था, वह सोहनलाल को भी पसंद थी। गणपतलाल वाली कुर्सी पर कोई बैठना नहीं चाहता। हमारे पुराणों में सोलह संस्कारों का उल्लेख मिलता है। यह सत्रहवाँ संस्कार है। इस देश में पैदा होनेवाला आयु के बीसवें वर्ष से लेकर मृत्यु शैया पर पहुँचने तक कुर्सी-संस्कार का अधिकारी हो सकता है। यह कुर्सी अधिकारी से मंत्री, मंत्री से मुख्यमंत्री और मंत्री से राजा तक की हो सकती है। लोकतंत्र में राजसुख हर कोई भोग सकता है – प्रधानमंत्री बनकर। सब अपनी – अपनी योग्यता पर निर्भर है। चपरासी की कुर्सी पर कोई नहीं बैठना चाहता। किसी समय इसका सम्मान न था। आजकल बड़े – बड़े सनदधारी भी इसको पाने की लालसा में कतारबद्ध दिखाई देते हैं। सब वक्त वक्त की बात है।

सुरों और असुरों के कुरसी-संघर्ष जग जाहिर हैं। देवराज इंद्र को तो प्रायः अपनी कुर्सी छिन जाने का भय रहता था। यह भय तो इस सीमा तक था कि वह अपनी बाइयों के नृत्य-कौशल का प्रयोग अपनी कुर्सी बचाने के लिए करता था। इंद्र के ये प्रयास नारी सशक्तिकरण के प्रारंभिक उदाहरण हैं। कालांतर में अपनी कुर्सी बचाने के लिए हमारे देश में राजाओं अपनी सुकोमल – सुंदरी कन्या का ब्याह अधेड़ और बुढ़ऊ से तक करना आरंभ कर दिया किया था। यह मामला इतना तूल पकड़ा कि अलाउद्दीन खिलजी की नज़र राजा रतनसेन की रानी पद्मावती को हथियाने के लिए चित्तौड़ की कुरसी पर जा पड़ी। लेकिन वह जाहिल राजपूती शान से अनभिज्ञ था। बच्चू को छठी का दूध याद आ गया शेरनी के सामने।

वर्त्तमान राजनीति में कुर्सी के लफड़े आये दिन होते रहते हैं। यह लोकतंत्र की पहचान है। पहले हमारे नेता लोकतंत्र की दुहाई देकर लोकतंत्र बचाने के लिए साथ मिलकर कर चुनाव लड़ते हैं। चुनाव जीतने के बाद फिर वह कुर्सी की रक्षा के लिए आपस में लड़ते हैं। चुनाव जीतने के बाद अचानक उन्हें आत्माओं होता है कि जिस एकता का ढिंढोरा पीटकर उसने सहयोगी के साथ विजय प्राप्त की है वह निहायत नालायक और अयोग्य आदमी है। वह ‘उस’ कुर्सी का अधिकारी हो ही नहीं सकता। मैं ही इस कुर्सी की इज्ज़त का सच्चा पहरेदार और रखवाला हूँ। जनता के द्वारा मैं ही इस सत्ता-सुंदरी के लिए चयनित सुयोग्य वर हूँ। फिर उस पार्टी की अयोग्य माता कुंती पांडवों के बीच द्रौपदी के विभाजन का अनैतिक आदेश देकर उनको शांत कर देती है। बेचारा अर्जुन हाथ मलता रह जाता है। मेहनत करे मुर्गा और अंडा खाये फकीर। यही लोकतंत्र है। यह नारी सशक्तिकरण का एक और अद्वितीय उदाहरण था। कहते हैं कि ज़र जोरू और ज़मीन झगड़े की जड़ होते हैं। नारी शक्ति के प्रभाव से एक जोरू का बँटवारा तो पाँच भाइयों में तो हो गया लेकिन नारायण को पांडवों को सुई की नोंक के बराबर ज़मीन दिलवाने के लिए महाभारत करवानी पड़ी।

भारत में चयन होते ही कुर्सी पर बैठने के लिए व्यक्ति की प्रज्ञा सबसे पहले इस बात के लिए सक्रिय होती है कि उस तक पहुँचने के लिए उसने क्या कुछ दाँव पर लगाया। आदर्श उसे कहते हैं कि कुर्सी पाया है तो सेवा कर लेकिन व्यावहारिकता कहती है कि तेरे बाप ने जो लगाया है पहले उसे वसूल। इस वसूलने के चक्कर में वह उसूल भूल जाता है। वह समझदार हो जाता है। यह समझदारी उससे रिश्वतखोरी जैसा पुनीत कर्म करवाती है। यह कर्म उसे शिष्ट समाज में सम्मान प्रदान करती है। ऐसे होनहार अधिकारी के साथ अपनी कन्या का हाथ पीला करवाने के लिए समझदार माता-पिता अपना मुँह काला करवाने को भी नहीं हिचकते हैं। यह सभ्य समाज का सद्गुण है। यही कुर्सी की महिमा है। जिसकी रचना अनादि है। कथा अनंत है। जिसे मैंने सुनायी है। आपने सुनी है । धन्यवाद!!!

— शरद सुनेरी