लघुकथा : परम्परा
पानठेले के पास खड़े एक शख्स ने राजश्री चबाते हुए कहा- ” उसके बाप तो क्या ; बाप का बाप भी एक नंबर का पियक्कड़ था। पूर्वजों के नक्श़े-कदम पर वह चल रहा है। इसमें अचम्भे वाली बात क्या है ? “
यह सुन एक लड़के ने भी बोल दिया- ” मेरे पापा जी को उसने ही बिगाड़ा है। पापा जी भी आजकल बहुत पीने लग गये हैं। “
तभी एक युवक का मन भी कुछ बोलने को हुआ- ” क्या बताऊँ चाचा…! वो आदमी अब सट्टेबाजी में लग गया है। जुए में तो धर्मराज युधिष्ठिर को मात दे दिया। अब उसका बेटा भी यही करेगा। परम्परा भी तो आगे बढ़नी ही है न। ” पानठेले के पास एक जोरदार ठहाका गूँजा।
यह सब सुन कर नन्ही शालू दौड़ती हुई घर आई।
” भईया…! सच…! तुम भी पापा जैसे हो जाओगे ? ” शालू की मासूमियत भरी बातें सुनते ही गौरव ने शालू के सर पर हाथ रखा; और फफकते हुए उसे गले लगा लिया।
— टीकेश्वर सिन्हा “गब्दीवाला”