ग़ज़ल
नाकामियों का बोझ जिगर पर लिए हुए
लौटा तेरे दर से दीदा-ए-तर लिए हुए
कत्ल कर चुके हैं कितनों को ही लफ़्ज़ों से
फिरते हैं वो ज़ुबान में नश्तर लिए हुए
शीशे के बदन वालो घरों से न निकलना
खड़े हैं लोग हाथों में पत्थर लिए हुए
वक्त की तरह गुज़र गए घड़ी में वो
मैं बैठा रहा बिगड़ा मुकद्दर लिए हुए
कूचा ए कातिल में हरसू शोर उठा, जब
मैं आया तेरी याद का लश्कर लिए हुए
— भरत मल्होत्रा